छोड़ना होगा टालमटोल का पुराना रवैया, तभी बनेगी अब बात
पीएम मोदी के पास अगले लोकसभा चुनाव तक अब दो वर्ष बचे हैं, इनमें भी राष्ट्रपति चुनाव के साथ-साथ कुछ राज्यों में चुनाव जीतना उनकी प्राथमिकता है।
कपिल अग्रवाल
इंदिरा गांधी की तरह अपने आप को एक मजबूत और लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित करते हुए नरेंद्र मोदी अपनी सरकार के तीन साल पूरे करने वाले हैं। इन वर्षो में मोदी ने चार बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं। इनमें दो व्यक्तिगत हैं और दो सरकारी। पहला, बड़ी बड़ी बातें कर उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर अपने आपको एक ब्रांड के रूप में स्थापित करने में सफलता हासिल कर ली है। इसी के सहारे अपने राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी जीत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हासिल की। इन दो व्यक्तिगत उपलब्धियों के अलावा सरकार के तौर पर उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है पाकिस्तान से ताल्लुकात बिगाड़ लेना और कश्मीर घाटी में भारत सरकार का वजूद मात्र कागजों तक पर सिमट जाने देना।
मोदी ने अपने कार्यकाल का पहला साल विश्व दर्शन में निकाल दिया और दूसरा साल नई नई योजनाएं घोषित करने, अमेरिका व पाकिस्तान से रिश्ते बनाने बिगाड़ने,विजय माल्या जैसे डिफाल्टरों को देश से भगाने के अलावा कालेधन व जाली मुद्रा के उन्मूलन के नाम पर नोटबंदी जैसे बेतुके काम करके पूरा किया। अब बाकी बचे दो सालों के लिए उनके पास केवल दो काम रह गए हैं। चौथे साल में राष्ट्रपति और महत्वपूर्ण गुजरात विधानसभा चुनावों में सफलता प्राप्त करना और फिर आखिरी साल में लोकसभा का रण जीतना। दिशाविहीन, बिखरा हुआ अपरिपक्व विपक्ष निश्चय ही इस योजना में उनका मददगार साबित होगा।
दरअसल देश, समाज व आम आदमी की सोच अब बिल्कुल बदल चुकी है। खराब अर्थव्यवस्था, डूबते ऋणों के भंवर में छटपटाती लड़खड़ाती बैंकिंग व्यवस्था, निरंतर गिरते निर्यात ,वैश्विक स्तर पर खराब होती जा रही भारतीय कॉरपोरेट जगत की छवि, बद से बदतर होती जा रही बुनियादी सुविधाओं की हालत व शोचनीय बुनियादी ढांचा ,आसमान छूती महंगाई, वास्तविक विदेशी निवेश में गिरावट व तत्कालीन केंद्र सरकार के समय से बरकरार चली आ रही भारत की खराब वैश्विक रैंकिंग आदि तमाम मसले आम आदमी के लिए बेमानी हो चुके हैं।
उपरोक्त सारी समस्याओं के साथ ही केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सरकार ने विजय माल्या, ठीक ठाक संबंधों वाला पाकिस्तान और शांति व तरक्की के मार्ग पर चल रही घाटी मोदी सरकार को सौंपी थी। उस समय न तो इतनी जबरदस्त महंगाई थी और न ही बैंकिंग क्षेत्र की हालत ही इतनी खस्ता थी। घाटी में फिल्मों की शूटिंग भी शुरू हो चुकी थी और पर्यटन उद्योग भी गति पकड़ने लगा था। मोदी के सत्ता संभालने के बाद से राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर देश की किसी भी समस्या का समाधान नहीं हुआ है बल्कि देश की छवि में गिरावट व तमाम बड़े देशों से संबंधों में खटास आई है और पड़ोसियों से भी संबंध बिगड़े हैं।
भारत के समर्थक समङो जाने वाले नेपाल, बांग्लादेश व भूटान जैसे आसपास के तमाम छोटे राष्ट्र मोदी सरकार के रवैये को देखते हुए चीन के पाले में चले गए हैं। तीन साल का समय किसी भी सरकार के लिए बहुत होता है और सारे रंग - ढंग, नीतियां आदि दीन दुनिया के आगे आ जाती हैं। भूमि अधिग्रहण, जीएसटी , काले धन, रक्षा व न्याय तंत्र के अलावा प्रशासनिक सुधार व उच्च पदों पर दशकों से चली आ रही रिक्तियों आदि जिन महत्वपूर्ण मसलों पर भाजपा विपक्ष में रहकर हल्ला मचाती थी और कहती थी कि सत्तानशीं होते ही सब कुछ दुरुस्त कर पटरी पर ला दिया जाएगा वे सारे के सारे मसले ज्यों कि त्यों अभी तक भी मुंह बाये खड़े अपने उद्धार की बाट जोह रहे हैं।
बहरहाल, जिस उम्मीद से आम जनता ने मोदी को सिर-आंखों पर बिठाकर सत्ता सौंपी है उनके अब तक के क्रियाकलापों से लगता नहीं की स्थिति में कुछ खास परिवर्तन दिखाई पड़ेगा। मोदी ने अपने आपको भले ही भली भांति स्थापित कर लिया हो पर देश की तकदीर बदल जाएगी इसमें संदेह है। कम से कम स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का तो यही आकलन है और शायद इसीलिए मोदी के तीन साल के शासन में भी भारत की वही पुरानी रेटिंग बरकरार है जो मनमोहन सरकार को उसकी कथित अकर्मण्यता के चलते प्रदान की गई थी। असल में, देश में समस्याओं का अंबार है,अभी तक हर राजनीतिज्ञ और सरकार ने समस्याओं को या तो टाला है या फिर नजरंदाज किया है। यह सरकार भी यही कर रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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