जम्मू-कश्मीर: नहीं संभले तो खुलेगा शिव का तीसरा नेत्र
बारिश और बाढ़ से बदरीनाथ-केदारनाथ धाम पर हुई तबाही के बाद जम्मू-कश्मीर के पर्यावरणविद् भी राज्य में किसी भी समय शिव के तीसरे नेत्र के खुलने की संभावना से आशंकित हो उठे। पर्यावरणविदों के अनुसार राज्य में जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों से खिलवाड़ करते हुए वनों और पहाड़ों को नुकसान पहुंचाया गया है,
श्रीनगर [जागरण ब्यूरो]। बारिश और बाढ़ से बदरीनाथ-केदारनाथ धाम पर हुई तबाही के बाद जम्मू-कश्मीर के पर्यावरणविद् भी राज्य में किसी भी समय शिव के तीसरे नेत्र के खुलने की संभावना से आशंकित हो उठे। पर्यावरणविदों के अनुसार राज्य में जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों से खिलवाड़ करते हुए वनों और पहाड़ों को नुकसान पहुंचाया गया है, वह किसी भी समय तबाही का कारण बन सकता है। इसलिए वादी में आने वाले पर्यटकों और श्रद्धालुओं की संख्या पर नजर रखते हुए उसे सीमित करना जरूरी हो गया है।
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि आबादी के बढ़ते दवाब, पर्यटकों को ज्यादा से ज्यादा आकर्षित करने की चाह और लगातार बढ़ रहे तीर्थयात्रियों के लिए किए जा रहे निर्माण ने स्थानीय पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। सबसे ज्यादा खतरा अमरनाथ यात्रा के दौरान ही है, क्योंकि वर्ष 1996 में पवित्र गुफा के रास्ते में बादल फटने से आई बाढ़ और ग्लेशियरों के टूटने की घटना से कोई सबक नहीं लिया गया। इस त्रासदी में करीब 242 लोग मारे गए थे।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त वादी के प्रमुख पर्यावरणविद् और भू-विज्ञान प्रो. रामशू ने कहा कि उत्तराखंड की तबाही हमारे लिए खतरे की घंटी है। यहां किसी भी समय उससे ज्यादा बड़ी त्रासदी हो सकती है। हमारी और उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियां लगभग सामान हैं। हमारा क्षेत्र किसी भी प्राकृतिक आपदा की दृष्टि से बहुत ज्यादा संवदेनशील है। झेलम और लिद्दर दरिया के किनारे हुए अतिक्रमण तबाही बनने वाले हैं। किसी भी समय इन दोनों दरियाओं में आने वाली बाढ़ वादी में तबाही का कारण बनेगी। अमरनाथ यात्रा के मार्ग पर भी पर्यावरण से खूब खिलवाड़ हुआ है। वहां ग्लेशियरों के पास मानवीय गतिविधियों में तेजी आई है। गलेशियर पिघल रहे हैं और वे किसी भी समय लोगों के बढ़ते दवाब से फट सकते हैं।
प्रो. रामशू ने कहा कि बेशक अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने बहुत सी सुविधाएं जुटाई हैं, लेकिन वह किसी आपात परिस्थिति में कारगर नहीं होंगी। बोर्ड के पास अमरनाथ की यात्रा को नियंत्रित करने की कोई योजना नहीं है। भू-वैज्ञानिक डॉ. खुर्शीद अहमद पर्रे ने कहा कि उत्तराखंड की तबाही पर शोक मनाना चाहिए। इसके साथ ही हमें राज्य में ऐसी तबाही से बचने की तैयारी भी करनी होगी। सोनमर्ग और पहलगाम में ग्लेशियरों में हलचल हो रही है। पहाड़ों पर होने वाली हल्की-सी बारिश भी अब झेलम व लिद्दर दरिया में भीषण बाढ़ का कारण बन जाती है। पर्यटकों की सुविधा के लिए जंगल काटे जा रहे हैं। पहाड़ों को काटकर सड़कें बनाई जा रही हैं, वेटलैंड समाप्त हो रहे हैं। राज्य सरकार को चाहिए कि वह अमरनाथ यात्रा को पर्यावरण मित्र बनाते हुए न सिर्फ श्रद्धालुओं की संख्या को सीमित करे, बल्कि वादी में आने वाले पर्यटकों की बढ़ रही संख्या पर भी रोक लगाए। अगर सरकार नहीं चेती तो फिर अमरनाथ की यात्रा मार्ग पर वर्ष 1996 की तबाही जैसे हालात दोबारा हो सकते हैं। कश्मीर में वर्ष 2005 की स्नो सुनामी फिर आ सकती है और भूकंप की तबाही से आप नहीं बच सकते।
प्रो. रामशू ने कहा कि राज्य सरकार ने हालांकि राज्य आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ बनाया है, लेकिन प्राकृतिक आपदा से बचने की ठोस नीति नहीं है। हमें प्राकृतिक आपदा से बचने के लिए जहां अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों का सहारा लेना चाहिए, वहीं श्रद्धालुओं को किसी भी आपात स्थिति से बचाने के लिए ढांचागत सुविधाएं भी चाहिए। उससे भी ज्यादा हमें प्राकृतिक संसाधनों को बचाना होगा। नहीं तो यहां किसी भी समय उत्तराखंड से ज्यादा तबाही हो सकती है।
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