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    संकट में सामाजिक न्याय की राजनीति

    By Edited By:
    Updated: Wed, 26 Mar 2014 11:15 AM (IST)

    सामाजिक न्याय की राजनीति का जिक्र छिड़ते ही इस लेखक के जेहन में एक चर्चित दलित पत्रकार की वह टिपण्णी कौंध जाती है, जो उन्होंने 15वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम सामने आने के बाद बहुत ही आहत भाव से एक अखबार में लिखी थी। उन्होंने लोकसभा चुनाव में सामाजिक न्याय की राजनीति की घोर पराजय पर भारी अफसोस जताते हुए लिखा था, 'लालू प्रसाद,

    सामाजिक न्याय की राजनीति का जिक्र छिड़ते ही इस लेखक के जेहन में एक चर्चित दलित पत्रकार की वह टिपण्णी कौंध जाती है, जो उन्होंने 15वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम सामने आने के बाद बहुत ही आहत भाव से एक अखबार में लिखी थी। उन्होंने लोकसभा चुनाव में सामाजिक न्याय की राजनीति की घोर पराजय पर भारी अफसोस जताते हुए लिखा था, 'लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, मायावती और मुलायम सिंह इस चुनाव में अपनी चमक खो चुके हैं। इसके साथ ही भारतीय राजनीति में 20 साल पहले शुरू हुई वंचित समूहों की हिस्सेदारी बढ़ाने की प्रक्रिया का पटाक्षेप हो गया है। इस प्रक्रिया के नायक-नायिकाओं से राजनीति के जिस मॉडल की बागडोर संभालने की अपेक्षा की जा रही थी, उसे पूरा करने में ये सभी नाकाम हो चुके हैं। यह एक सपने के टूटने की दास्तान है। यह सपना था भारत को बेहतर और सबकी हिस्सेदारी वाला लोकतंत्र बनाने का और देश के संसाधनों पर वंचित समूहों को हिस्सेदारी दिलाने का।'

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    आभाहीन सामाजिक न्याय

    टिप्पणी ने अधिकांश सामाजिक न्याय समर्थक बुद्धिजीवियों की भावनाओं को ही उजागर किया था। यह टिप्पणी बताती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में ही सामाजिक न्याय की राजनीति आभाहीन हो गई और इससे जुड़े नायक, नायिकाओं का निर्णायक तौर पर पतन हो गया था। बहरहाल ऐसा क्यों कर हुआ और मौजूदा लोकसभा चुनाव में सामाजिक न्याय की राजनीति की दशा पर विचार करने के पहले सामाजिक अन्याय के उभार तथा इससे उबरने के लिए चलाए गए संघषरें का जायजा ले लिया जाय।

    वर्ण व्यवस्था के जरिये अन्याय

    भारतवर्ष में सदियों से जारी सामाजिक अन्याय के मूल में वर्ण व्यवस्था रही है। यह व्यवस्था संपदा, संसाधनों, पेशों और मानवीय मर्यादा की वितरण व्यवस्था के रूप में क्त्रियाशील रही। धर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था में स्वधर्म पालन के नाम पर कर्म शुद्धता की अनिवार्यता तथा पेशों की विचलनशीलता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप शुद्र-अतिशूद्रों के लिए अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य संचालन में मंत्रणा दान, भूस्वामित्व, राज्य संचालन, सैन्य-वृत्ति, व्यापार-वाणिज्यादी का कोई अवसर नहीं रहा। उन्हें शक्ति के सभी प्रमुख स्नोतों से बहिष्कृत कर अशक्त तथा मानवेतर बना दिया गया। वर्ण व्यवस्था के प्रावधानों के तहत शक्ति के समस्त स्नोतों सहित गगनस्पर्शी सामाजिक मर्यादा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित होकर रह गई। इसके खात्मे के लिए 19वीं सदी में शूद्र समाज में जन्मे फुले ने सामाजिक न्याय की लड़ाई शुरू की।

    आरक्षण की अधूरी लड़ाई

    फुले से शुरू हुई यह लड़ाई शाहूजी महाराज, पेरियार से होते हुए बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के प्रयत्‍‌नों से शिखर पर पहुंची। इन महामानवों का मानना था कि बहुसंख्यों पर वर्ण व्यवस्था कानूनों को जबरन थोपा गया है। लिहाजा, जबरन बहिष्कृत कर अन्याय का शिकार बनाए गए लोगों के हित में जबरन कानून बनाकर न्याय दिलाने के लिए ही उन्होंने आरक्षण की लड़ाई लड़ी, लेकिन सामाजिक अन्याय के खात्मे के लिए फुले से शुरू हुई हिस्सेदारी की लड़ाई अधूरी थी। यह मुकम्मल तब होती जब वर्ण व्यवस्था के वंचितों को उन तमाम क्षेत्रों में हिस्सेदारी सुनिश्चित होती, जिनसे इनको सदियों से बहिष्कृत किया गया था। इसी अधूरी लड़ाई को पूरा करने के लिए डॉ. लोहिया, शहीद जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा और कांसीराम ने सामाजिक न्याय की राजनीति की नई पारी का आगाज किया। बाद में इन्ही का अनुसरण कर रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, मायावती ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराई।

    संख्या के अनुपात में भागदारी

    डॉ. लोहिया विशेष अवसर के सिद्धांत को हकीकत में बदलने के लिए राजनीति, व्यापार, पलटन और ऊंची सरकारी नौकरियों में 90 प्रतिशत शोषितों के लिए 60 प्रतिशत स्थान सुरक्षित कर देने की मांग उठाते रहे, लेकिन 'बिहार लेनिन' नाम से मशहूर जगदेव प्रसाद और यूपी के रामस्वरूप वर्मा सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में 90 प्रतिशत शोषितों के लिए 90 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करने की उग्र हिमायत करते रहे। बाद में वर्ण व्यवस्था के वंचितों के सबसे बड़े नायक के रूप में उभरे कांसीराम सामाजिक न्याय की पूर्णता के लिए एक नए दर्शन, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी' के साथ राजनीति के मैदान में उतरे। वास्तव में शासन-प्रशासन और देश के कारोबार में सभी सामाजिक समूहों के संख्यानुपात में भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए ही कांसीराम ने बसपा का गठन किया। बहरहाल मुकम्मल समाजिक न्याय के लिए सरकारी नौकरियों और राजनीति में मिले सीमित आरक्षण को विस्तार देने के उपक्रम में 2002 में भोपाल में आयोजित दलित बुद्धिजीवियों के सम्मलेन ने इजाफा दिया।

    भोपाल घोषणापत्र

    12-13 जनवरी, 2002 तक चले भोपाल सम्मलेन से दलित बुद्धिजीवियों ने जो डाइवर्सिटी केंद्रित 21 सूत्रीय दलित एजेंडा जारी किया, उससे सामजिक न्याय के नए अध्याय की शुरुआत हुई। इसे ऐतिहासिक 'भोपाल घोषणापत्र' भी कहते हैं। कभी अमेरिका में दलितों से भी बदतर स्थिति में पड़े अश्वेतों को डाइवर्सिटी नीति के तहत सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, फिल्म-टीवी सहित सभी गतिविधियों में आरक्षण दिलाकर सामाजिक न्याय का उज्जवल दृष्टांत स्थापित किया गया। इसी से प्रेरित होकर भोपाल घोषणापत्र में दलित बुद्धजीवियों ने नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग, व्यापार, सहित हर क्षेत्र में एससी/एसटी के लिए संख्यानुपात में हिस्सेदारी की मांग उठाई। देखते ही देखते शक्ति के स्नोतों के बंटवारे की मांग एससी/एसटी से आगे बढ़कर भारत के चार प्रमुख सामाजिक समूहों, 'एससी/एसटी, ओबीसी, सवर्ण और धार्मिक अल्पसंख्यकों' के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात तक फैल गई।

    लुभा रहे कांग्रेस-भाजपा

    दलित-पिछड़े समुदाय की उद्योग-व्यापार में भागीदारी की मांग को ध्यान में रखकर कांग्रेस लोकसभा चुनाव 2004 से ही एससी/एसटी के लिए उद्यमिता की मांग को अपने घोषणापत्र में जगह देने लगी। भाजपा लोकसभा चुनाव-2009 से ही अपने घोषणापत्र में भारत की सामाजिक विविधता को आर्थिक विविधता में तब्दील करने का भरोसा देने लगी, जबकि लोहिया, जगदेव प्रसाद, कांसीराम के भागीदारी दर्शन से दीक्षित लालू, मुलायम, पासवान, मायावती 2009 के बहुत पहले से ही सवणरें के गरीब भाइयों को आरक्षण की मांग उठाने में होड़ लगाने लगे। नतीजतन उन्हें लोकसभा चुनाव-2009 में गहरी शिकस्त का सामना करना पड़ा।

    उभर रहे नए दल

    अब लोकसभा चुनाव-2014 पूर्व स्थिति यह है कि यूपी में माया व मुलायम, बिहार में लालू व पासवान एक-दूसरे के सबसे बड़े दुश्मन बन गए हैं। अब 'संख्यानुपात भागीदारी पार्टी' और 'बहुजन मुक्ति पार्टी' जैसे नए दल वजूद में आ गए हैं। सोशल मीडिया में नए दलों को मिल रही प्रतिक्त्रिया से यह मानना पड़ता है कि अगर माया-मुलायम, लालू-पासवान को अपनी स्थिति नए सिरे से पुख्ता करनी है तो उन्हें भी संख्यानुपात के आधार पर भागीदारी दर्शन को लेकर अपनी राजनीति खड़ी करनी होगी। खासतौर से मायावती के लिए ऐसा करना इसलिए भी जरुरी है, क्योंकि घर-गृहस्थी न बसाकर उन्होंने सारा जीवन सामाजिक न्याय के महानायकों फुले, शाहूजी, पेरियार, बाबासाहेब और कांसीराम के सपनो के भारत निर्माण के प्रति समर्पित कर रखा है।

    (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन

    के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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