Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    सुल्तानपुर में पताका फहराने की जद्दोजहद

    By Edited By:
    Updated: Tue, 01 Apr 2014 12:18 PM (IST)

    कुशनगरी सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र का चुनाव एक बार फिर विकास के बजाए जातीय समीकरणों पर आकर टिक गया है। सभी पार्टियां अपने-अपने वोट बैंक को मजबूत करते ह ...और पढ़ें

    Hero Image

    सुल्तानपुर, [पारितोष मिश्र]। कुशनगरी सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र का चुनाव एक बार फिर विकास के बजाए जातीय समीकरणों पर आकर टिक गया है। सभी पार्टियां अपने-अपने वोट बैंक को मजबूत करते हुए दूसरे के खेमे में सेंधमारी की जुगत में लगी हैं। इस बार का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 1998 के बाद इस सीट के लिए तरस रही भाजपा को अपना ट्रम्प कार्ड खेलना पड़ा है। मोदी लहर और वरुण गांधी की छवि की मुखालफत के जरिए मुस्लिम वोटों को बटोरने में बसपा और सपा प्रत्याशी खुद को मजबूत साबित करने में लगे हैं। यहां के मतदाताओं को हमेशा से नया प्रत्याशी ही भाया है। ऐसे में यहां पहली बार चुनाव मैदान में उतरे सभी प्रमुख दलों के प्रत्याशी विजय पताका फहराने के लिए पूरे जोर-तोड़ से लगे हैं।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    1951 से 1971 तक भारतीय जन संघ ने कांग्रेस से सीट छीनने की कोशिश तो बहुत की लेकिन कभी कामयाब नहीं हो सका। बीच में वोट बैंक बढ़ा और टक्कर कांटे की होने लगी लेकिन 1971 के चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद अगले तीन चुनाव में जन संघ ने प्रत्याशी ही नहीं उतारा। वर्ष 1989 में भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार प्रत्याशी उतारा। लेकिन भाजपा के राजेंद्र प्रसाद दुबे 5.54 फीसद वोटों के साथ चौथा स्थान ही पा सके। वर्ष 1991 में राम का नाम लेकर भाजपा ने इतिहास बदल दिया और रिकार्ड वोटों से जीत अपने नाम की। यह लहर 1996 और 1998 के चुनाव में भी दिखाई दी। वर्ष 1999 में भाजपा ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा और करीबी टक्कर में बसपा को जीत हासिल हुई। वर्ष 2004 और 2009 के चुनावों में भाजपा चौथे नंबर पर पहुंच गई। वर्ष 2004 में भाजपा को सिर्फ 12.67 फीसद मतदाताओं का साथ मिला जो 2009 के चुनाव में घटकर 6.34 फीसद पहुंच गया। भाजपा का ग्राफ यहां लगभग मिटने लगा तो अब दोबारा वापसी के लिए वरुण गांधी का सहारा लिया गया है। वर्ष 1977 में अमेठी-सुल्तानपुर एक सीट थी, तब पहली बार वरुण के पिता संजय गांधी यहां से चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए। इसके बाद 1980 वह जीते। वरुण अपने पिता के साथ-साथ इसे अपनी भी कर्म भूमि मानते हैं। अंबेडकर नगर के मूल निवासी पवन पांडेय के लिए भी सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र कर्म भूमि ही है। पवन अकबरपुर के विधायक रह चुके हैं। पवन पांडेय को इस बार बहुजन समाज पार्टी का साथ मिला है और वह हाथी पर सवार होकर जातीय समीकरण के बल पर अपनी किस्मत अजमा रहे हैं। वह खुद को वरुण गांधी के खिलाफ सबसे मजबूत प्रत्याशी साबित कर रहे हैं ताकि अल्पसंख्यक वोट उनको मिल सके और जीत की नैया पार लग सके।

    समाजवादी पार्टी ने शकील अहमद को मैदान में उतारा है। समाजवादी पार्टी कभी सीट अपने नाम तो नहीं कर सकी लेकिन लड़ाई में हमेशा से रही है। वर्ष 1996, 98, 99 और 2004 के चुनाव में सपा दूसरे नंबर पर और वर्ष 2009 के चुनाव में तीसरे नंबर पर रही। शकील अहमद भी पवन की पुरानी छवि और वरुण गांधी की वर्तमान छवि को अपना हथियार बनाकर वोट मांग रहे हैं। सभाओं में उनके कटाक्ष किसी से छिपे नहीं हैं। पांचों विधान सभाओं में सपा का परचम और राज्य में सपा सरकार होने का फायदा मिलने का भरोसा भी उन्हें हैं। आजादी के बाद 1984 तक (1977 छोड़कर) इस सीट पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। हालांकि इसके बाद से जीत का दो दशक से अधिक का अकाल पिछले चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी संजय सिंह ने खत्म किया। संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह के 10-जनपथ में पहुंच का नतीजा है कि इस बार उनको कांग्रेस पार्टी ने मैदान में उतारा है। आम आदमी पार्टी से शैलेंद्र प्रताप सिंह चुनाव मैदान में हैं। आप के प्रवक्ता संजय सिंह भी सुल्तानपुर शहर के रहने वाले हैं। इस कारण आम आदमी पार्टी के लिए भी यह चुनाव महत्वपूर्ण है।

    लोकसभा चुनाव से संबंधित समाचार पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।