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खेती में क्रांति, भारत ने तैयार की गेहूं की 'जन्म कुंडली'

भारतीय कृषि वैज्ञानिकों को गेहूं की जन्म कुंडली तैयार करने में अहम सफलता मिली है। जीनोम आनुवांशिकी तैयार करने की इस उपलब्धि से गेहूं की ऐसी खास प्रजातियां तैयार की जा सकेंगी, जिनकी खेती कहीं भी और किसी भी मौसम में की जा सकती है। गेहूं की फसल पर रोग व कीटों का प्रकोप संभव नहीं होगा।

By Edited By: Published: Sat, 19 Jul 2014 10:28 AM (IST)Updated: Sat, 19 Jul 2014 12:03 PM (IST)
खेती में क्रांति, भारत ने तैयार की गेहूं की 'जन्म कुंडली'

नई दिल्ली (सुरेंद्र प्रसाद सिंह)। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों को गेहूं की जन्म कुंडली तैयार करने में अहम सफलता मिली है। जीनोम आनुवांशिकी तैयार करने की इस उपलब्धि से गेहूं की ऐसी खास प्रजातियां तैयार की जा सकेंगी, जिनकी खेती कहीं भी और किसी भी मौसम में की जा सकती है। गेहूं की फसल पर रोग व कीटों का प्रकोप संभव नहीं होगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से मुक्त गेहूं की नई प्रजातियां खाद्य सुरक्षा के लिए किसी क्राति से कम नहीं होगी।

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भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की साझा टीम ने यह सफलता दिलाई है। गेहूं की जन्मकुंडली बनाने पर 35 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह धनराशि विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के जैव प्रौद्योगिकी विज्ञान विभाग ने उपलब्ध कराई थी। नायाब अनुसंधान करने वाली टीम के एक वरिष्ठ जैव प्रौद्योगिकी वैज्ञानिक डाक्टर नागेंद्र कुमार सिंह ने बताया कि जलवायु परिवर्तन से गेहूं की खेती प्रभावित हो रही है, जिससे उत्पादकता में समुचित वृद्धि नहीं हो रही है। गेहूं की खेती के लिए ठंडे वातावरण की जरूरत होती है, लेकिन साल दर साल तापमान वृद्धि से गेहूं की पैदावार में अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है। सिंह ने बताया कि भारत में इस परियोजना के अनुसंधान में कुल 21 सदस्यीय टीम लगी हुई है। जीन सीक्वेंशिंग की इस उपलब्धि से सूखारोधी प्रजातियां विकसित की जा सकेंगी।

धान के बाद गेहूं विश्व की सबसे ज्यादा पैदा होने वाली फसल है। पिछले दो दशक में गेहूं की उत्पादकता 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बढ़ी है। इसे देखते हुए जीनोम सीक्वेंशिंग जरूरी हो गया था। उन्होंने कहा,खेती की आधुनिक तकनीकों में जीनोम सीक्वेंशिंग, जर्म प्लाज्मा और जीन में तब्दीली से गेहूं के ऐसी प्रजातियां विकसित की जा सकेंगी, जिन पर रोगों का प्रकोप नहीं हो सकेगा। कम अथवा बिना सिंचाई के भी अच्छी पैदावार लेना संभव हो सकेगा। क्षेत्रीय भौगोलिक जलवायु के हिसाब से फसलों के बीज तैयार करना आसान हो गया है। स्थानीय बारिश और मिट्टी की नमी से ही फसल तैयार हो जाएगी।

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