उपचुनाव के नतीजों ने आसान की मोदी की राह
गुजरात, बिहार और पश्चिम बंगाल की चार लोकसभा सीटों के लिए हुएउपचुनावों के नतीजे जितने दिलचस्प हैं उतने ही राष्ट्रीय राजनीति के लिए दूरगामी संकेत देने वाले। इन नतीजों से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस के लिए चुनौती लगातार कड़ी होती जा रही है। भाजपा के लिए 2014 में उम्मीद की किरण तो है, लेकिन उसके साथ यह शर्त भी जुड़ी है कि चुनाव की कमान नरेंद्र मोदी के हाथ हो। बिहार में भाजपा से गठबंधन तोड़ने के कगार तक जा पहुंचे नीतीश कुमार के लिए महाराजगंज की हार का सबक भी स्पष्ट है। यह

नई दिल्ली [प्रशांत मिश्र]। गुजरात, बिहार और पश्चिम बंगाल की चार लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों के नतीजे जितने दिलचस्प हैं उतने ही राष्ट्रीय राजनीति के लिए दूरगामी संकेत देने वाले। इन नतीजों से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस के लिए चुनौती लगातार कड़ी होती जा रही है। भाजपा के लिए 2014 में उम्मीद की किरण तो है, लेकिन उसके साथ यह शर्त भी जुड़ी है कि चुनाव की कमान नरेंद्र मोदी के हाथ हो। बिहार में भाजपा से गठबंधन तोड़ने के कगार तक जा पहुंचे नीतीश कुमार के लिए महाराजगंज की हार का सबक भी स्पष्ट है। यह देखना दिलचस्प होगा कि हावड़ा लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा दिखाई गई सदाशयता को ममता बनर्जी 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद याद रखेंगी या नहीं?
कर्नाटक की जीत के बाद इतरा रही कांग्रेस चारों लोकसभा सीटों के उपचुनावों में चारों खाने चित रही है। केंद्र में सत्ताधारी दल को सबसे बड़ा धक्का सियासत में अपने दुश्मन नंबर एक नरेंद्र मोदी के गढ़ गुजरात से लगा है। उसकी जीती हुई चार विधानसभा सीटों के साथ दो लोकसभा सीटें झटक कर भाजपा ने कांग्रेस के फीलगुड को जमींदोज कर दिया है। मोदी को अपने लिए सबसे बड़ी चुनौती मान रही कांग्रेस का दर्द अब और बढ़ गया है। ये नतीजे ऐसे वक्त आए हैं जब भाजपा में यह चर्चा शबाब पर है कि मोदी को केंद्रीय चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपी जाए या नहीं? इस पर फैसला गोवा में दो दिन बाद शुरू होने जा रही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हो सकता है।
मुझे आज से ठीक 11 साल पहले गोवा की ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी याद आ रही है। गुजरात के दंगों के ठीक बाद तब सवाल यह था कि नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहें या नहीं? उस समय मैं प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ ही दिल्ली से गोवा गया था। पूरे रास्ते दोनों नेताओं में मंथन चला और वाजपेयी तब तक गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन के पक्षधर थे। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी ने जैसे ही अपने इस्तीफे की पेशकश की वैसे ही पंडाल में भावनाओं का भूचाल सा आ गया। देश भर से जुटे कार्यसमिति के सदस्य और कई बड़े पदाधिकारी खुलकर मोदी के पक्ष में आ गए। माहौल देखकर शीर्ष नेतृत्व को अपना मन बदलना पड़ा। आज मोदी खुद को न केवल राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर स्थापित कर चुके हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट है कि भाजपा में फिलहाल उनके कद का कोई नेता नहीं है। पिछले दिनों मोदी का कद छोटा करने की कोशिशों पर संघ के एक शीर्ष नेता की टिप्पणी थी कि 'वोटर और सपोर्टर दोनों उन्हें चाहते हैं। भाजपा के मतदाताओं को घर से बूथ तक लाने का बूता उनमें ही है। यदि मोदी को कमान नहीं दी गई तो 2004 और 2009 दोहराएगा और उन्हें कमान मिली तो 1999 जैसे नतीजे आने की सबसे ज्यादा संभावनाएं हैं।'
ध्यान रहे कि 1998 में एक मत से सरकार गिरने के बाद 1999 में वाजपेयी फिर जीतकर लौटे थे। जाहिर है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पहले ही मोदी की लोकप्रियता का लोहा मान चुका है। अब गुजरात के उपचुनाव नतीजों ने मोदी को और मजबूत कर दिया है।
राजग के भीतर मोदी के सबसे बड़े विरोधी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उपचुनाव नतीजों के फलितार्थ समझने होंगे। अगर भाजपा से समझौता टूटने से पहले यह नतीजा है तो बाद के नतीजों की कल्पना करना बहुत मुश्किल नहीं। भले ही महाराजगंज में राजद की जीत के बजाय बाहुबली प्रभुनाथ सिंह की जीत मानी जा रही हो, लेकिन हर हाल में नीतीश की तो हार है ही। सारे संकेत यही बता रहे हैं कि अगला लोकसभा चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस नहीं, बल्कि मोदी बनाम कांग्रेस होगा।
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