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    एक रुपये का हेरफेर, गरीबी का मजाक नहीं तो और क्या

    By Edited By:
    Updated: Wed, 24 Jul 2013 01:36 AM (IST)

    केंद्र सरकार ने रोजाना कमाई में महज एक रुपये बढ़ाकर एक झटके में 17 करोड़ लोगों की गरीबी दूर करने का सेहरा अपने माथे बांध तो लिया है, लेकिन पिछले दो वर्षो में महंगाई की स्थिति को देखते हुए ये आंकड़े आम जनता के साथ क्रूर मजाक सरीखे लगते हैं। सितंबर, 2011 में सरकार ने जब गांव में 26 रुपये रोजाना से ज्या

    नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। केंद्र सरकार ने रोजाना कमाई में महज एक रुपये बढ़ाकर एक झटके में 17 करोड़ लोगों की गरीबी दूर करने का सेहरा अपने माथे बांध तो लिया है, लेकिन पिछले दो वर्षो में महंगाई की स्थिति को देखते हुए ये आंकड़े आम जनता के साथ क्रूर मजाक सरीखे लगते हैं। सितंबर, 2011 में सरकार ने जब गांव में 26 रुपये रोजाना से ज्यादा कमाई वालों को गरीब मानने के सिद्धांत को खारिज किया था, तब से आज तक रसोई के जरूरी सामानों की कीमतें 10 से लेकर 40 फीसद तक बढ़ चुकी हैं।

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    पढ़ें: 28 रुपये कमाने वाले गरीब नहीं

    मौजूदा कीमतों के लिहाज से दिल्ली में रोजमर्रा के जरूरी सामान के लिए एक व्यक्ति को न्यूनतम 35 रुपये रोजाना की जरूरत पडे़गी। दिल्ली में अभी आटा 20 रुपये प्रति किलो और चावल [सामान्य] 28 रुपये प्रति किलो है। प्रति व्यक्ति न्यूनतम खुराक 250 ग्राम आटा और चावल पर ही रोजाना 12 रुपये खर्च करने होंगे। इसके अलावा सरसों तेल, आलू, प्याज, हरी सब्जी, दाल, दूध, चाय, नमक, मसालों पर 30 रुपये अतिरिक्त खर्च करने होंगे। यह स्थिति तब है जब सिर्फ दाल-रोटी-चावल और मामूली सब्जी ही बनाई जाए।

    सितंबर, 2011 में सरकार ने जब 26 रुपये के आंकड़ों को खारिज किया था तब भी यही तर्क दिया गया था। विपक्षी दलों ने सरकार पर आरोप लगाए थे कि उसके सदस्य 26 रुपये में जीवन यापन कर दिखाएं। आंकड़ों की ताजा बाजीगरी ने विपक्षी दलों को सरकार पर हमला करने का एक और मौका दे दिया है। वर्ष 2011 में विपक्षी दलों की तरफ से जोरदार आलोचना के बाद ही सरकार ने इसे वापस ले लिया था। तब सरकार में योजना मंत्री अश्विनी कुमार ने 26 रुपये रोजाना कमाई के आंकड़े को खारिज किया था और कहा था कि इस राशि में इज्जत से जीवन यापन नहीं हो सकता।

    भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा कि सरकार को बताना होगा कि पहले 26 रुपये की परिभाषा को क्यों नाकारा था और अब 27 रुपये की परिभाषा लागू करने का क्या मतलब है? सरकार का मकसद क्या सिर्फ आंकड़ों में गरीबों की संख्या को घटाना है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने सवाल उठाया कि जब गरीबों की संख्या 15 फीसद कम हो गई है तो फिर इन वर्षो में राशन के दुकानों के जरिये खाद्य वितरण की राशि इतनी तेजी से क्यों बढ़ी है? सरकार को इस बात का भी जबाव देना होगा जब खुदरा महंगाई की दर सालाना 10 फीसद से ज्यादा रही है, तब वह रोजाना कमाई में सिर्फ एक रुपये की वृद्धि कर गरीबी कैसे कम रही है।

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