भाजपा के लिए खतरे की घंटी, हार का सिलसिला बिहार तक पहुंचा
लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत के बाद राज्यों में भी उसी जीत को दोहराने की मंशा पाले बैठी भाजपा के लिए उपचुनावों के संकेत डरावने हैं। उत्तराखंड से हार की जो कड़ी शुरू हुई वह कर्नाटक में भी दिखी और बिहार में परेशानी के हद तक पहुंच गई। चुनावी नतीजों ने भाजपा को बता दिया है कि राज्यों में राजनीतिक जमीन
नई दिल्ली, [आशुतोष झा]। लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत के बाद राज्यों में भी उसी जीत को दोहराने की मंशा पाले बैठी भाजपा के लिए उपचुनावों के संकेत डरावने हैं। उत्तराखंड से हार की जो कड़ी शुरू हुई वह कर्नाटक में भी दिखी और बिहार में परेशानी के हद तक पहुंच गई। चुनावी नतीजों ने भाजपा को बता दिया है कि राज्यों में राजनीतिक जमीन अभी गीली है। लिहाजा सिर्फ लहर पर सवार होकर बढ़ने की कोशिश की और पांव कमजोर पड़े तो फिसलना तय है। जनता ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राज्यों में भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरीखे विश्वसनीय चेहरे नहीं हैं। समय रहते पार्टी ने सभी ढीले तारों को नहीं कसा तो फिर कम से कम बिहार में भाजपा का जादू फीका पड़ना तय है। असर दूर तक दिख सकता है।
बिहार के चुनावी नतीजे सबसे अहम हैं। भाजपा दो सीट गंवाकर चार पर है तो लालू प्रसाद-नीतीश कुमार व कांग्रेस गठबंधन छह सीटों पर जीत के साथ उत्साहित है। लेकिन ऐसा नहीं कि असर सिर्फ बिहार तक सीमित है। उत्तराखंड में पार्टी कांग्रेस के हाथों दो मजबूत विधानसभा सीट गंवा चुकी है। पंचायत चुनाव हुए तो कांग्रेस ने स्वीप किया। कर्नाटक में बेल्लारी जैसी महत्वपूर्ण सीट खो दी तो राज्य में पार्टी के सबसे बड़े चेहरे व सांसद बीएस येद्दयुरप्पा की सीट शिकारीपुरा से भाजपा उम्मीदवार मुश्किल से जीत पाया।
भाजपा इसे उपचुनाव का नतीजा बताकर चेहरा बचाने की कोशिश भले ही कर रही हो, लेकिन बिहार ने खतरे की घंटी जरूर बजा दी है। प्रदेश में भाजपा गठबंधन लालू-नीतीश-कांग्रेस गठबंधन के हाथों दो सीट गंवा बैठी। भाजपा के लिए बड़ी चिंता का सबब यह है कि नए महागठबंधन में शामिल हर पार्टी को जीत मिली। यही इसका संकेत है कि भाजपा की लहर से डरे लालू और नीतीश गले मिले तो नीचे उनके कार्यकर्ता भी गले तो नहीं मिले लेकिन हाथ जरूर मिला लिया है। अब नीतीश-लालू के लिए यही चुनौती है कि वह बड़ा दिल दिखाते हुए 2014 विधानसभा चुनाव की भी रणनीति बनाएं और अपने कार्यकर्ताओं को भी गले मिला दें। अगर वह ऐसा करने में सफल हुए तो भाजपा नेताओं को इसका अहसास है कि नतीजा क्या होगा।
हां, इस आशंका से खुद महागठबंधन के नेता भी डरे है कि इस जीत के बाद उनके नेता दलगत स्वार्थ से उपर उठकर कितना सहृदय और सहिष्णु हो पाएंगे। महागठबंधन का विश्वसनीय चेहरा तय करना लालू प्रसाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। इस गठबंधन के सफल होने का असर दूसरे राज्यों में भी दिखा तो भाजपा के लिए राह मुश्किल होती जाएगी। ध्यान रहे कि उत्तर प्रदेश में सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह ने बसपा से हाथ मिलाने के लिए तैयार होने का भी संकेत दे दिया था।
दरअसल यही चुनौती भाजपा के लिए भी है। उसे भी यह दिखाना होगा कि वह गठबंधन के अलावा अपने नेताओ में तारतम्य बिठा पाए और ऐसा चेहरा सामने खड़ा करे जो विपक्षी दलों के मुकाबले ज्यादा विश्वसनीय हो। 'सबका साथ सबका विकास' का नरेद्र मोदी का नारा बुलंद भी करना होगा और उसे लागू भी करना होगा। ध्यान रहे कि नीतीश सरकार में उनके उपमुख्यमंत्री रहे भाजपा के सुशील मोदी को लेकर भी अभी तक सर्व स्वीकार्यता नहीं बन पाई है।
हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड में भी अगले कुछ महीनों में चुनाव होने हैैं। हालांकि उन राज्यों में कांग्रेस की बदहाल स्थिति ने भाजपा के लिए राह आसान कर दी है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि वहा भी फिलहाल कोई विश्वसनीय चेहरा नहीं है। स्थिति यही रही तो फिर प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा दिखाकर जनता का विश्वास जीतना होगा।
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