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    ओशो की जयंती: हार्ट अटैक या हत्‍या, क्‍या थी मौत की असली वजह; आखिरी दिन क्‍या हुआ था?

    Updated: Thu, 11 Dec 2025 03:42 PM (IST)

    ओशो की जयंती पर उनकी मौत का रहस्य फिर से गहरा गया है। उनकी मौत हार्ट अटैक से हुई या यह हत्या थी, यह सवाल आज भी अनसुलझा है। ओशो के अंतिम दिनों में क्या ...और पढ़ें

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    डिजिटल डेस्‍क, नई दिल्‍ली। 'ओशो', यह सुनते ही जेहन में कौंध उठती है, वो आवाज जो कभी तूफान बनी तो कभी फुसफुसाहट। जिसने चेतना के बंद दरवाजे पर दस्तक दी। विचारों को खोला-तोड़ा और सुनने वाले की अंतरात्मा को झकझोरा। ओशो एक व्यक्ति नहीं, एक ऐसा प्रवाह थे- जो सोच की सीमाओं को तोड़कर इंसान को उसकी ही गहराइयों में उतार देता है।

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    देश और दुनिया वालों के लिए कभी 'आचार्य रजनीश' तो कभी 'भगवान रजनीश'पर प्रशंसक, शिष्य, अनुयायी और आलोचकों के लिए वह सिर्फ 'ओशो' थे।

    चारपांच दशकों तक वे खुद विवादों, प्रशंसा, आलोचनाओं और आध्यात्मिक विद्रोह के केंद्र बने रहे। बाद में जब उनके जीवन की अंतिम परतें खुलनी शुरू हुईं तो रहस्य और गहरा हो गया - क्या उनकी मौत नैसर्गिक थी या उनकी हत्‍या की गई थी? ओशो को दुनिया से गए 35 साल हो गए, लेकिन उनके तीखे शब्द आज भी बिकते हैं, उनकी आवाज सुनी जाती है, उनके विचार नए सिरे से लोगों को झकझोरते हैं।

    आज उनकी जयंती है और यही वह दिन है जब सवाल फिर तैरता है कि क्या ओशो की हत्या की गई थी? उनके आखिरी दिनों की असली कहानी क्या थी? यहां पढ़ें...

    पुणे में 19 जनवरी 1990.. की वह सर्द सुबह अब भी कई लोगों की स्मृतियों में धुंधली-सी नहीं, बल्कि सिहरन पैदा कर देने वाली साफ तस्वीर की तरह दर्ज है। भारत और दुनिया भर में हजारों अनुयायियों को अपनी शिक्षाओं से प्रभावित करने वाले ओशोउस सुबह अपने कमरे में थे। आश्रम के भीतर असामान्य खामोशी थी, लेकिन बाहर उनके करीबी शिष्यों के बीच अनकही बेचैनी तैर रही थी। यही वह दिन था, जिसने आने वाले दशकों तक उनके निधन के आसपास एक गहरा रहस्य बना दिया।

    Osho

    उस सुबह क्‍या हुआ था?

    अभय वैद्य की किताब 'हू किल्ड ओशो' के मुताबिक, ओशो के करीबियों में से एक डॉ. गोकुल गोकाणी के घर उस दिन अचानक आश्रम की एक कार पहुंची। डॉक्‍टर से कहा गया- जयेश (ओशो के सबसे खास और ताकतवर शिष्य) बुला रहे हैं… तुरंत, मेडिकल बैग और अपने लेटर हेड के साथ चलिए। 

    गोकाणी ने समझा कि कोई वरिष्ठ अनुयायी बीमार है, लेकिन जैसे ही वे आश्रम पहुंचे। वहां से उनको जयेश के दफ्तर कृष्णा हाउस ले जाया गया। वहां ओशो के निजी चिकित्सक स्वामी प्रेम अमृतो (डॉ. जॉन एंड्रयूज) आए और डॉ. गोकाणी को गले लगाकर फुसफुसाया- 'वह शरीर छोड़ रहे हैं।', गोकाणी का सवाल- 'कौन?' जवाब मिला- 'ओशो।'

    गोकाणी यह सुनकर हिल गए। वह संभल पाते और अपने गुरु तक पहुंच पाते। उनको घंटों तक एक कमरे में बंद कर रखा गया। बाहर से दरवाजा भी लॉक कर दिया गया और फोन भी काट दिया गया। जब दरवाजा खुला, तब तक ओशो दुनिया से जा चुके थे। फिर उनसे एक ही काम कराया गया, वह था- मृत्यु प्रमाण पत्र पर हस्‍ताक्षर।

    अफसोस की बात यह है कि एक डॉक्टर को मृत्यु प्रमाण पत्र पर मौत का कारण भी पूछकर लिखना पड़ा। कारण बताया गया- मायोकार्डियल इन्फार्क्शन, यानी दिल का दौरा और रहस्य यहीं से शुरू होता है। क्या यह सिर्फ दिल का दौरा था? सवाल उठता है हलफनामा।

    साल 2015 में ओशो की मौत के 25 साल बाद डॉ. गोकानी एक हलफनामे के साथ सामने आए। हलफनामा में लिखा- उन्हें ओशो को देखने की अनुमति मौत के बाद दी गई। यह सुनिश्चित किया गया कि पोस्टमार्टम की नौबत न आए।

    मृत्यु प्रमाण पत्र पर उनका पता जानबूझकर काट दिया गया। और सबसे अहम- मृत्यु का समय वह नहीं था, जो आश्रम ने एलान किया था। ओशो के कुछ विदेशी शिष्यों को सुबह ही उनके निधन की खबर मिल चुकी थी, जबकि आधिकारिक घोषणा शाम 5 बजे की गई।

    Osho 3

    आखिरी दिनों में क्या था चल रहा?

    ओशो के जीवन में 1989-90 का समय सबसे संवेदनशील दौर था। उनकी सेहत लगातार गिर रही थी। वे ज्यादा से ज्यादा समय सोकर और आराम करते हुए गुजारते थे। सार्वजनिक प्रवचन बंद हो चुके थे।

    इस समय आश्रम का नियंत्रण तीन लोगों के हाथ में था-

    • जयेश (माइकल ओ'ब्रायन) - वित्त और प्रबंधन
    • अमृतो (डॉ. जॉन एंड्रयूज) - निजी चिकित्सक
    • अनादो  (सुसान हेफली) - कानूनी सचिव

    इन तीनों के नेतृत्व में एक इनर सर्किल का गठन हुआ। इन सर्किल यानी 21 सदस्यीय कमेटी बनी, जो ओशो की मृत्यु के बाद आश्रम चलाती। दिलचस्प यह कि इस कमेटी का गठन ओशो के जीवन काल में हुआ, लेकिन इसका खुलासा उनकी मृत्यु के बाद।

    इसी दौरान ओशो की करीबी सखी मां प्रेम निर्वाणो की भी रहस्यमयी मौत हुई, जिसका अंतिम संस्कार रात में गुपचुप किया गया। यह आश्रम की परंपरा के बिल्कुल विपरीत था।

    ओशो की मौत या हत्‍या?

    19 जनवरी 1990 की शाम एक आधिकारिक बयान में कहा गया कि शाम 5 बजे हार्ट अटैक से ओशो का निधन हुआ, लेकिन घटनाक्रम में कई विसंगतियां थीं, जिन पर गौर किया जाए तो कहानी साधारण देह त्यागने की नहीं नजर आती है।वे विसंगतियां थीं....

    • ओशो की मृत्यु के बाद उसका पोस्टमार्टम नहीं कराया गया।
    • ओशो का पार्थिव शरीर बुद्ध हॉल में सिर्फ 10-15 मिनट रखा गया
    • अंतिम संस्कार की सारी तैयारियां बेहद जल्दबाजी में हुईं।
    • चिता को जल्दी जलाने के लिए मिट्टी का तेल डाला गया।
    • ओशो के कई करीबी अनुयायी उनके शरीर को देख भी नहीं पाए।

     ओशो के आश्रम में किसी संन्यासी की मृत्यु को उत्‍सव की तरह मनाने का रिवाज था। फिर जब ओशो ने शरीर छोड़ा तो इसका एलान करने के घंटे भर भीतर ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनके निर्वाण का उत्सव भी संक्षिप्त रखा गया। चिता को जल्दी जलाने की क्‍या जरूरत थी, जो मिट्टी का तेल डाला गया।

    ओशो की मां ने खबर सुनते ही कहा- मार डाला

    ओशो की मां सरस्वती देवी आश्रम में ही रहती थी, लेकिन उनको भी बेटे के निधन की खबर बहुत देर से दी गई। मां जब बेटे की मौत की खबर मिली, तो वे फूट-फूटकर रो पड़ीं और कहा- 'बेटा, तुझे मार डाला इन्होंने… मेरे बेटे को मार दिया।'

    उनका आरोप था कि ओशो को दी जा रही दवाएं ठीक नहीं थीं और उन्हें अपने बेटे से मिलने से भी रोका गया था। ओशो की सचिव रहीं नीलम ने अपने एक इंटरव्यू में दावा किया था कि आश्रम रहते हुए भी सरस्वती देवी लंबे समय तक ओशो से मिलने नहीं दिया गया था।

    वसीयत: 23 साल बाद सामने आई और भी जाली निकली

    ओशो के दुनिया से चले जाने के बाद सबसे बड़ा विवाद ओशो की कथित वसीयत को लेकर खड़ा हुआ। साल 2013 में ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन (Osho International Foundation-OIF)ने 1989 की एक वसीयत पेश की, जिसमें OIF को उनकी सारी बौद्धिक संपदा का उत्तराधिकारी बताया गया था।

    जब विशेषज्ञों ने जांचा-परखा तो इसे जाली करार दिया। हस्ताक्षर कॉपी-पेस्ट जैसे पाए गए। आखिर वसीयत 23 साल तक छिपी क्यों रही?इसका कोई जवाब नहीं मिलापुणे में जालसाजी की FIR दर्ज हुई। बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी जांच पर सवाल उठाए

    क्या ओशो ने अपनी मौत खुद चुनी थी?

    आश्रम प्रबंधन और चैतन्य कीर्ति जैसे लोगों ने दावा किया कि ओशो को अमेरिकी जेल में रहने के दौरान धीमा असर करने वाला जहर दिया था, जिससे उनका शरीर कमजोर हो गया था। ओशो ने अपने जाने का समय खुद चुना। अंतिम संस्कार जल्दी कराने का निर्देश भी उनका था, लेकिन इन दावों का कोई दस्तावेज प्रमाण अभी तक सामने नहीं आया।

    तो क्या ओशो की हत्या हुई थी?

    इस सवाल का शायद कोई अंतिम उत्तर कभी नहीं मिलेगा, लेकिन यह सच है कि मौत का समय संदिग्ध था। ओशो की मृत्यु आज भी उसी रहस्य की दीवार में कैद है, जिसके पीछे छिपे सच का कोई आधिकारिक ताला अब तक नहीं खुल पाया है।

    किताब 'हू किल्ड ओशो' में अभय वैद्य ने लिखा है- ओशो की मौत की कहानी किसी परी कथा-सी लगती है। खासकर उन लोगों के लिए यह नहीं जानते कि 19 जनवरी, 1990 को आखिर हुआ क्या था? उस दिन रजनीशपुरम आश्रम में जो हुआ, उसने कई सवाल खड़े किए, जिनके जवाब आज तक नहीं मिल पाए।  

    ओशो: आचार्य रजनीश का साम्राज्य बनने से बिखरने तक की कहानी

    आज ओशो की जयंती है। ओशो में लोगों की दिलचस्पी इसलिए जगी क्योंकि वो किसी परंपरा, दार्शनिक विचारधारा या धर्म का हिस्सा कभी नहीं रहे। ओशो का जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में हुआ। उनका असली नाम चंद्रमोहन जैन था।

    बचपन से ही विद्रोही स्वभाव और गहरी जिज्ञासा के कारण वे पारंपरिक मान्यताओं पर सवाल उठाते रहे। दर्शन में एमए करने के बाद उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में काम किया, लेकिन जल्द ही पूरे देश में घूम-घूमकर आध्यात्मिक और सामाजिक विषयों पर भाषण देने लगे। इसी दौरान वे आचार्य रजनीश के नाम से लोकप्रिय हुए।

    1960–70 के दशक में ओशो के विचारों ने भारतीय और पश्चिमी युवाओं को गहराई से प्रभावित किया। यौन ऊर्जा पर उनकी बेबाक सोच- जिसे उन्होंने आध्यात्मिक विकास का माध्यम बताया, विवादों का कारण बनी। 1974 में पुणे में रजनीश आश्रम की स्थापना हुई, जो तेजी से एक अंतरराष्ट्रीय कम्यून में बदल गया।

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    साल 1981 में ओशो ने अमेरिका के ओरेगन में 64,000 एकड़ में रजनीशपुरम बसाया, लेकिन स्थानीय विरोध, आंतरिक टकराव और कानूनी विवादों ने इस प्रयोग को विफल कर दिया। साल 1985 में इमिग्रेशन मामले में गिरफ्तारी के बाद उन्हें भारत वापस भेज दिया गया। इसके बावजूद ओशो वैश्विक आध्यात्मिक विमर्श के सबसे चर्चित और प्रभावशाली गुरुओं में बने रहे। ओशो ने 19 जनवरी, 1990 को महज 58 साल की उम्र में दुनिया छोड़ दी।

    पुणे स्थित उनके निवास 'लाओ जू हाउस' में उनकी समाधि बनाई गई, जिसके टॉम्ब स्टोन पर लिखा गया-

    'ओशो, जो न कभी पैदा हुए, न कभी मरे। उन्होंने 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच इस धरती की यात्रा की।' 

    Osho Samadhi

     

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