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कोलेजियम की खामियां सुधारने का प्रयास था एनजेएसी

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को खारिज करने वाले पांच में से तीन न्यायाधीशों ने कोलेजियम व्यवस्था में खामियां गिनाई थी और उसमें सुधार की जरूरत बताया था।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Fri, 23 Oct 2015 03:37 AM (IST)Updated: Fri, 23 Oct 2015 04:37 AM (IST)

माला दीक्षित, नई दिल्ली। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को खारिज करने वाले पांच में से तीन न्यायाधीशों ने कोलेजियम व्यवस्था में खामियां गिनाई थी और उसमें सुधार की जरूरत बताया था। यह साबित करता है कि एनजेएसी के लिए संसद का एक सुर में बोलना बेमतलब नहीं था।

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संसद ने भी व्यवस्था में बदलाव की जरूरत महसूस की थी और राजनैतिक विरोधों को भूल कर एकमत से एनजेएसी कानून पारित किया था। न्यायाधीश नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी, जवाबदेह और उद्देश्यपरक बनाने के लिए लाए गए एनजेएसी कानून का खारिज होना व्यवस्था में जड़ता कायम रहने की ओर इशारा करता है।

सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसेफ ने अपने फैसले में कहा है कि कोलेजियम में सब कुछ ठीक नहीं है। इसमें पारदर्शिता, जवाबदेही और उद्देश्यपरकता की कमी है। विश्वास की कमी भी इसे प्रभावित कर रही है। जस्टिस चेलमेश्वर ने तो बिना लाग लपेट के कोलेजियम की कार्य प्रणाली पर सवाल उठाया। इसमें कोई जवाबदेही नहीं है। न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी रिकार्ड तक किसी की पहुंच नहीं है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की भी नहीं। इस तरह का व्यवहार न तो देश की जनता के लिए अच्छा है और न ही इससे संस्था में भरोसा बढ़ता है। उन्होंने दिनकरन प्रकरण (कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे) और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण के मामले का भी जिक्र किया है।

जस्टिस चेलमेश्वर ने पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रूमा पाल द्वारा कोलेजियम पर उठाए गए सवालों का जिक्र करते हुए प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए उसमें सिविल सोसाइटी की भागीदारी की वकालत की है। एनजेएसी में दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों की भागीदारी का प्रावधान यही सुनिश्चत करने के लिए था। हालांकि प्रतिष्ठित व्यक्तियों की योग्यता तय न होना एनजेएसी को अदालत की मंजूरी मिलने में आड़े आया।

जस्टिस मदन बी लोकूर भी न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था की फाइन ट्यूनिंग की जरूरत पर बल देते है। एनजेएसी की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि व्यवस्था में किसी एक की प्राइमेसी नहीं थी। न्यायपालिका कार्यपालिका और जनता तीनों की भागीदारी थी। 1993 के पहले जब न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की प्राइमेसी थी तो सरकार ने मनमानी की। नतीजन सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की व्याख्या कर व्यवस्था ही बदल दी। सारा कामकाज कोलेजियम के जरिये अपने हाथ में ले लिया।

हालांकि इसके बावजूद कोलेजियम व्यवस्था पर भी सवाल उठे। दिल्ली हाईकोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश आरएस सोढ़ी कोलेजियम पर सीधा हमला करते हुए कहा है कि सबका अपना अपना एजेंडा होता है। इसी तरह की बात सेवानिवृत्त न्यायाधीश नागेन्द्र राय कही है। रिकार्ड उठाकर देखा जाए तो पता चल जाएगा कि खानदानवाद चल रहा है कि नहीं। उच्च तबके के और मैनेजमेंट जानने वाले ही न्यायाधीश बनते हैं। साधारण परिवार के देहात के अच्छे लड़के जिनकी कोई बैकिंग नहीं है न्यायाधीश नहीं बन पाते।

कब कब हुई नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश

1- 1958 में विधि आयोग ने न्यायाधीश की नियुक्ति प्रक्रिया तय करने की सिफारिश की
2- 1973 में देश भर के बार एसोसिएशन ने नियुक्ति का फार्मूला लागू करने की मांग की
3- 1979 में विधि आयोग ने चीफ जस्टिस की नियुक्ति में तीन वरिष्ठ जजों की सलाह को जरूरी बताया
4- विधि आयोग ने ही मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता को तरजीह दी
5- 1981 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में न्यायाधीश की नियुक्तियों में सरकार की सर्वोच्चता बताई
6- 1987 में विधि आयोग ने राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग का सुझाव दिया
7- 1993 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आई कोलेजियम व्यवस्था
8- 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम व्यवस्था लागू करने के अपने फैसले पर फिर मुहर लगाई


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