...जब पिता से छिपाकर और मां को बताकर नाटक के लिए जाता था
नाटक से पहले रोज रात को पापा से चुपके लेकिन मम्मी को बताकर नाटक की रिहर्सल में जाता रहा।
नई दिल्ली, [राजेश कुमार]। एक पुरानी कहावत है कि हर किसी की ज़िंदगी की सफलता के पीछे ज़रूर किसी ना किसी औरत का हाथ होता है। मैं ये तो नहीं कहूंगा कि सफल हूं लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि आज जो कुछ भी हूं उसमें मां का बहुत बड़ा योगदान है। वह चाहे बात मनोबल बढ़ाने की हो या फिर मेरे मन की बातों को समझने की।
ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उसके एक दो नहीं बल्कि कई कारण हैं, जिसकी अपनी वजहें भी हैं। मैं अपनी नज़र से उस मां के बारे में यहां लिखने जा रहा हूं जिसे मैंने अपने बचपन से लेकर अब तक दिल से महसूस किया है और उसके बिना कल्पना करके दुनिया में अकेलापन सा महसूस होने लगता है।
जी हां। मां के बारे में आपको काफी कुछ किताबों में पढ़ने को मिल जाएगा कि मां ऐसी होती हैं, मां वैसी होती है, मां दयालू होती है, मां कृपालु होती है। लेकिन, इन बातों पर अगर आपको यकीन ना हो तो एक बार आप उनसे पूछें, जिनकी अपनी मां नहीं है। जो बचपन से ही मां के प्यार से महरूम हैं। सच में वह मां की ममता और उसके प्यार को कभी भी बयां नहीं कर पाएगा। वह मां की ममता का कभी एहसास नहीं कर पाएगा।
मुझे आज भी याद है, आज से करीब 22 वर्ष पहले मां के उस प्यार को जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहा था। उस दौरान पापा की तरफ से सख्त हिदायत थी कि जब तक मैं रात में स्कूल का टास्क पूरा ना कर लूं और घर से पढ़ाई के लिए जो काम दिया गया है उसे पूरा ना करूं, मुझे रात का खाना नहीं दिया जाएगा और ना ही सोने दिया जाएगा। लेकिन, मैं भी कम शैतान नहीं था। रात को 9 बजते ही भले ही स्कूल का टास्क पूरा हुआ हो या ना हुआ हो, पढ़ाई के लिए घर में जो काम दिया गया वह पूरा हुआ हो या ना हुआ हो, मैं अपनी आंखें बंद करने का नाटक करने लग जाता था। ऐसा बहाना करता था कि ताकि सबको लगे कि मुझे जोर की नींद आ रही है और अगर जल्द खाना नहीं दिया गया तो मैं भूखे ही सो जाऊंगा।
क्योंकि मुझे पता था कि हर रोज़ की तरह ऐसा करने पर मुझे मेरी मां ही पापा के इस फरमान से मुक्त करा सकती है। और होता भी बिल्कुल वैसा ही था। जैसे ही मैं अपनी आंखें बंद करने का नाटक करता था फौरन मां पढ़ाई के दौरान खाना लेकर हाजिर हो जाती थी और पापा के उन फरमानों से बच जाता था।
ये तो सिर्फ एक वाकया है। मुझे वह घटना भी याद है जब मैं पापा के आदेश की नाफरमानी करते हुए चुपके से नाटक की रिहर्सल के लिए जाता था। क्योंकि बचपन से ही मैं नाटक का बहुत बड़ा शौकीन था। गांव में एक बार नाटक का आयोजन किया गया और उसमें मुझे भी एक किरदार दिया गया। उस वक्त मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे लिए यह बड़ी बात थी, क्योंकि हमारे जैसों से बड़े आयु वर्ग के लोगों ने इस नाटक का आयोजन किया था और उन लोगों ने इस नाटक में मुझे भी एक रोल के लिए चुना था। जैसे ही नाटक में रोल का यह प्रस्ताव मिला, पहले तो मैं फूले ना समाया। लेकिन, जैसे ही घर आकर पापा को बताया तो ऐसे लगा जैसे जिंदगी में मैने कोई बहुत बड़ी गलती कर दी हो। क्योंकि, पापा का यह मानना था कि नाटक खेलना जीवन में अपना समय बर्बाद करना है। इसलिए, मैं दो महीने बाद होनेवाली अपनी वार्षिक परीक्षा की जोरदार तरीके से तैयारी करूं, ताकि अच्छे अंक ला सकूं।
लेकिन, मम्मी ने मेरी भावनाओं को समझा। वह मुझे अकेले में ले गई और मेरी बातों में अपनी पूर्ण सहमति जताई। उसके बाद तो ऐसा लगा जैसे मेरे अरमानों को चार पंख लग गए हो। नाटक से पहले रोज रात को पापा से चुपके लेकिन मम्मी को बताकर नाटक की रिहर्सल में जाता रहा। एक महीने बाद जब गांव में नाटक हुआ और गांववालों ने मेरा किरदार देखा तो सभी उस किरदार के मुरीद हो गए। हालांकि, ये अलग बात है कि पापा को तब भी यही लग रहा था कि वह अपनी जगह बिल्कुल ठीक हैं और नाटक जैसी चीजें बिल्कुल फालतू और समय को बर्बाद करने जैसा हैं।
ये तो महज कुछ वाकये हैं लेकिन ऐसी दर्जनों घटनाएं है जहां मुझे याद है कि जब मुझे अपनी बातें मनवानी होती थीं तो मेरा सबसे बड़ा सहारा मेरी मां ही होती थी। ऐसे में कह सकता हूं कि एक बालक के लिए उसकी सबसे बड़ी ताकत मां से बढ़कर और कौन हो सकता है।
- लेखक जागरण डाट काम में चीफ सब एटिडर हैं
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