दुनिया से विदाई के लिए तैयार थे खुशवंत
नई दिल्ली [जेएनएन]। अपने बेबाक लेखन के लिए विख्यात खुशवंत सिंह कई बार विवादों में भी पड़े, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने विचारों से समझौता नहीं किया। सबसे पहले वह आपातकाल के बावजूद संजय और इंदिरा गांधी का समर्थन करने के कारण विवादों में आए। वह अपने रवैये पर न केवल कायम रहे, बल्कि बाद में इस पर एक पुस्तक भी लिखी कि उन्होंने आपातका
नई दिल्ली [जेएनएन]। अपने बेबाक लेखन के लिए विख्यात खुशवंत सिंह कई बार विवादों में भी पड़े, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने विचारों से समझौता नहीं किया। सबसे पहले वह आपातकाल के बावजूद संजय और इंदिरा गांधी का समर्थन करने के कारण विवादों में आए। वह अपने रवैये पर न केवल कायम रहे, बल्कि बाद में इस पर एक पुस्तक भी लिखी कि उन्होंने आपातकाल थोपे जाने के बाद भी संजय और इंदिरा का समर्थन क्यों किया? इसके बाद वह तब विवाद का विषय बने जब उन्होंने स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई के विरोध में अपना पद्म भूषण सम्मान लौटा दिया। एक बार उन्होंने यह लिख दिया कि रवींद्रनाथ टैगोर जितने अच्छे लेखक थे उतने अच्छे कवि नहीं, जबकि उन्हें गीतांजलि काव्य के लिए ही नोबेल पुरस्कार मिला था। इस पर कोलकाता के लोग उनसे नाराज हो गए और पश्चिम बंगाल विधानसभा ने उनके खिलाफ निंदा प्रस्ताव भी पारित किया, लेकिन वह अपनी मान्यता से डिगे नहीं। वह संभवत: बिरले ऐसे शख्स थे जिन्होंने अपने बारे में यह लिखा कि उन्होंने अपना जीवन जी लिया और अब और ज्यादा नहीं जीना चाहते। वह कहते थे कि मैं दुनिया से विदा लेने को तैयार हूं।
1980 से 86 तक राज्यसभा सदस्य रहे खुशवंत सिंह खुद को नास्तिक बताते थे और साथ ही जातीय-धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ खुलकर बोलते-लिखते थे। सिखों का सबसे प्रमाणिक इतिहास लिखने का श्रेय उन्हें ही जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों तक वह खुद को नास्तिक ही बताते रहे, लेकिन उन्होंने यह स्वीकार किया कि सुबह-सुबह उन्हें गुरबाणी और अन्य धार्मिक प्रवचन सुनने में आनंद आता है। वह कृपालु महाराज के खासे प्रशंसक बन गए थे। वह पिछले कुछ ंवर्षो से दीपावली के आसपास हरिद्वार में गंगा आरती भी देखने जाया करते थे। उन्होंने गायत्री मंत्र का जाप करना भी शुरू कर दिया था।
खुशवंत सिंह ने अपने जीवनकाल में करीब 85 पुस्तकें और अनगिनत लेख लिखे। उनकी सबसे चर्चित और उन्हें ख्याति दिलाने वाली पुस्तक 'ट्रेन टू पाकिस्तान' थी। उनके साप्ताहिक स्तंभ-न काहू से दोस्ती से न काहू से बैर-ने भी उन्हें ख्याति दिलाई। उन्होंने यह स्तंभ 1969 से शुरू किया था। दैनिक जागरण समेत देश के तमाम अखबारों में कई भाषाओं में छपने वाले इस स्तंभ के जो आलोचक थे वे भी उसके पाठक थे। अपने लेखन के जरिये वह दूसरों पर कटाक्ष करने में संकोच नहीं करते थे, लेकिन खुद पर भी हंसते थे। उनके स्तंभ के अंत में आम तौर पर कोई न कोई चुटकुला होता था, जो अक्सर उनके पाठक भेजते थे।
खुशवंत सिंह नित्य मद्यपान करते थे, लेकिन खुद को गांधी का अनुयायी बताते थे- यह कहकर कि महात्मा की तरह वह भी झूठ और आडंबर के विरोधी हैं। उनके लेखन से उनकी एक अलग छवि बनती थी, लेकिन निजी जीवन में वह बेहद अनुशासित थे। सुबह चार बजे जगकर लेखन में जुट जाने वाले खुशवंत सिंह आम तौर पर रात नौै बजे सो जाते थे। जब तक वह स्वस्थ रहे तब तक शाम सात से आठ बजे के बीच उनके घर जानी-मानी हस्तियों की महफिल जमती थी। इनमें ज्यादातर पत्रकार, लेखक और उनके प्रशंसक होते थे। अपने लेखन में वह अपनी महिला मित्रों का खुलकर उल्लेख करते थे। उन्होंने अपनी महिला मित्रों पर एक पुस्तक भी लिखी। बीमारी के दिनों में उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना कम कर दिया और कॅाल बेल की जगह एक यह सूचना चस्पा कर दी कि अगर आपने मिलने के लिए पहले से समय नहीं लिया है तो कृपया घंटी न बजाएं।
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