जिन्हें नहीं होना चाहिए था राष्ट्रपति, अब बदलाव की है जरूरत
जब किसी सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष अपने अधीन काम कर रहे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का निर्णय करता है, तब इसमें निहित है कि राष्ट्रपति बनने जा रहा व्यक्ति उसका शुक्रगुजार रहेगा।
राजकिशोर
राष्ट्रपति चुनाव के सिलसिले में दो घटनाओं को याद करना चाहता हूं। इनमें से पहली घटना आपातकाल के बाद की है जब कांग्रेस (ओ) के नेता नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति चुना गया था। यह एक सर्वसम्मत चुनाव था, लेकिन इसके पीछे जनता पार्टी की विपुल राजनैतिक ताकत थी। विपक्ष में आ पड़ी कांग्रेस (आई) नैतिक रूप से इतनी कमजोर पड़ चुकी थी कि वह अपना अलग उम्मीदवार खड़ा करती भी, तो उसका कोई महत्व नहीं होता लेकिन जनता पार्टी के नेतृत्व ने रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा कर कांग्रेस से प्रतिशोध जरूर लिया था। तब भी यह बात मुङो अच्छी नहीं लगी थी और आज दुख होता है।
बात उन दिनों की है जब श्रीमती इंदिरा गांधी कांग्रेस को तोड़ने में लगी हुई थीं। संगठन के ज्यादा नेता अविभाजित कांग्रेस के अध्यक्ष निजलिंगप्पा के साथ थे और ज्यादातर सांसद तथा विधायक इंदिरा गांधी के साथ। उन्हीं दिनों राष्ट्रपति पद के चुनाव का समय आया। कांग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया। विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार थे वी.वी. गिरि। रेड्डी का संबंध पुराने मूल्यों से था और गिरि श्रमिक नेता थे। मुकाबला तगड़ा था। नीलम संजीव रेड्डी हार भी सकते थे। तभी इंदिरा गांधी ने पाला बदल लिया और घोषित किया कि गिरि हमारे उम्मीदवार होंगे। गिरि जीते और रेड्डी हार गए। 1977 में अपार बहुमत से विजयी हुई जनता पार्टी ने उन्हीं रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए चुन कर, कहते हैं, काव्यात्मक न्याय (पोएटिक जस्टिस) किया लेकिन अगर यह कविता थी, तो बहुत भोंडी कविता थी। राष्ट्रपति का पद देश का सब से बड़ा संवैधानिक पद होता है और इस पद का उपयोग राजनैतिक प्रतिशोध के लिए नहीं किया जाना चाहिए। मेरे खयाल से, जनता पार्टी का यह अपराध अक्षम्य की कोटि में आता है।
एक और राष्ट्रपति की याद आती है, जिनका नाम था ज्ञानी जैल सिंह। ज्ञानी जी दिलचस्प इंसान थे। उन दिनों वे केंद्र में इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में थे। कहते हैं, पंजाब आंदोलन को सुलगाने में उनका भी हाथ था। पंजाब आंदोलन के असर को कम करन के लिए श्रीमती गांधी को कोई सिख राष्ट्रपति चाहिए था लेकिन जब उन्होंने ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति पद के लिए चुना, तब देश भर में ज्ञानी जी को ले कर लतीफों की बाढ़ आ गयी। यह बाढ़ तब और बढ़ गयी, जब राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने कहा कि मैडम चाहें तो मैं झाड़ू लगाने को भी तैयार हूं। बाद में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वे और पांच वर्ष के लिए राष्ट्रपति बनना चाहते थे। मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह पसंद नहीं था। जवाब में राष्ट्रपति जैल सिंह ने राजीव गांधी को बहुत परेशान किया।
सप्ताह भर तक दिल्ली कांपती रही कि वे राजीव की सरकार को कभी भी बरखास्त कर सकते हैं। शुक्र है कि उन्होंने अंतत: ऐसा नहीं किया लेकिन वे कर भी देते, तो उन्हें कौन रोक सकता था? हमारा संविधान राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह प्रधानमंत्री को बरखास्त कर सके, भले ही वही व्यक्ति संसद में अपने बहुमत के बल पर फिर प्रधानमंत्री हो जाए। यह उदाहरण एक और श्रेणी की ओर इंगित करता है जिसके लोगों को राष्ट्रपति नहीं बनना चाहिए। इसीलिए पिछली बार जब प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद से नवाजा गया था, तो इसकी नैतिकता समझने में मैं असमर्थ रहा था। तब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और मुखर्जी उनकी सरकार में वित्त मंत्री। प्रणब राजनीतिज्ञ बुरे नहीं हैं लेकिन जो व्यक्ति मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री है, वही अगले दिन राष्ट्रपति बन जाए कि जो पद बहुत शक्तिशाली भले न हो, पर संवैधानिक अनुक्रम की दृष्टि से प्रधानमंत्री से बहुत ऊंचा है, तब क्या इसे राजनैतिक विपर्यय नहीं कहा जाएगा?
जब किसी सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष अपने अधीन काम कर रहे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का निर्णय करता है, तब इस निर्णय में ही निहित है कि राष्ट्रपति बनने जा रहा व्यक्ति उसका शुक्रगुजार रहेगा और ऐसा कोई काम करने से बचेगा जिसकी संगति उसकी सरकार से न हो। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दो अलग-अलग पद हैं और दोनों पर बैठे व्यक्ति एक ही पार्टी के हों, यह सत्ता के केंद्रीकरण का एक मीठा तरीका है। यह कतई वांछित नहीं है कि दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हों, यह तो एक खतरनाक सिलसिला होगा, लेकिन राष्ट्रपति को इतना गंभीर, सक्षम और निष्पक्ष तो होना ही चाहिए कि जरूरत पड़ने पर वह अपने प्रधानमंत्री से मतभेद रखने का और इसे अभिव्यक्त करने का साहस कर सके। हमें दहाड़ता हुआ राष्ट्रपति नहीं चाहिए तो मिमियाता हुआ राष्ट्रपति भी नहीं चाहिए। कहने को राष्ट्रपति पद के लिए चुना जाने वाला व्यक्ति अपने दल से इस्तीफा दे देता है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह एक कागजी खानापूरी होती है और राष्ट्रपति का दिल किसके लिए धड़कता है।
कुछ लोगों की राय है कि प्रणब बाबू को ही एक और टर्म के लिए राष्ट्रपति चुन लिया जाना चाहिए। उससे खराब बात और क्या हो सकती है? यह बुरी नजीर स्वयं भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने डाली थी। वे दो बार राष्ट्रपति बने। कहते हैं, उनके दूसरी बार राष्ट्रपति बनने को ले कर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल प्रसन्न नहीं थे। लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने जिद पकड़ ली थी। हमारा सौभाग्य है कि राजेंद्र प्रसाद के बाद कोई और नेता दोबारा राष्ट्रपति बनने में सफल नहीं हुआ। अत: इस मामले को यहीं दफना देना चाहिए, ताकि किसी भावी राष्ट्रपति के मन में यह लालच पैदा न हो।
एक स्वस्थ परंपरा यह हो सकती है कि वर्तमान उपराष्ट्रपति को ही पदोन्नत कर राष्ट्रपति बना दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट में ऐसा ही होता है। सब से वरिष्ठ जज अपने आप प्रधान न्यायाधीश बन जाता है। इससे राष्ट्रपति पद को ले कर कोई विवाद नहीं होगा और वह सर्वसहमति से चुना जा सकेगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तब इतना तो हमेशा ख्याल रखना चाहिए कि किसी भी पार्टी के सदस्य को राष्ट्रपति न बनाया जाए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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