क्या ग्लोबल वॉर्मिंग के इन खतरों के बारे में जानते हैं, आपकी रसोई तक पड़ेगा ये असर
सर्दी कम समय पड़ेगी, लेकिन ज्यादा पड़ेगी, इसी तरह बारिश कम समय होगी, लेकिन ज्यादा होगी। ये स्थिति बेहद खतरनाक है, इसके प्रति हर समय सतर्क रहने की जरूरत है।
नई दिल्ली/जालंधर, [स्पेशल डेस्क]। ग्लोबल वॉर्मिंग के बारे में आपने काफी कुछ पढ़ा और सुना होगा। बार-बार अखबारों और टीवी चैनलों पर भी दिखाया जाता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण लगातार धरती का तापमान बढ़ रहा है। इसके चलते ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्रों का जलस्तर बढ़ने से दुनिया के कई शहरों के आने वाले समय में डूब जाने का अंदेशा भी वैज्ञानिक जताते रहे हैं। लेकिन हम आपको ग्लोबल वॉर्मिंग के ऐसे खतरों के बारे में बता रहे हैं, जिनके बारे में आपने शायद ही सुना हो।
गेहूं 5 फीसद और धान उत्पादन में 20 फीसद गिरावट
ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही मौसम का पैटर्न बदल रहा है, जिसका सीधा असर देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति पर पड़ना स्वाभाविक है। बढ़ते तापमान से गेहूं, धान व दूध के उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों की रिसर्च में ये तथ्य सामने आए हैं कि तापमान 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने पर गेहूं के उत्पादन में 5, धान के उत्पादन में 20 फीसद की गिरावट आ सकती है। जाहिर अगर फसलों और दूध आदि के उत्पादन में इतनी गिरावट आ जाएगी तो दुनियाभर में हाहाकार मच जाएगा।
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40 फीसद कम दूध देंगी गाय
यही नहीं, वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग का असर दुधारू जानवरों पर भी पड़ेगा। इसके साथ ही गाय के दूध में 40 फीसद तक जबकि भैंस के दूध में 5-10 फीसद तक की गिरावट दर्ज की जा सकती है। 21वीं शताब्दी के अंत तक तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की आशंका है, जिससे पूरा सिस्टम ही बदल जाएगा।
जानकार की राय
जालंधर में मौसम के बदलते पैटर्न व चुनौतियां विषय पर आयोजित एक सम्मेलन के मौके पर दैनिक जागरण ने देशभर के विभिन्न हिस्सों से पहुंचे वैज्ञानिकों से इस संबंध में कई अहम पहलुओं पर बात की।गुरु अंगद देव वेटरनरी एंड एनिमल साइंसेज यूनिवर्सिटी में एनीमल न्यूट्रीशन विभाग के प्रो. आरएस ग्रेवाल ने बताया कि ग्लोबल वार्मिंग से मिल्क प्रोडक्शन के साथ ही पशुओं के प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। प्रेगनेंसी में समस्या आ रही है।
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उन्होंने कहा, पिछले कुछ सालों से देखने में आ रहा है कि मार्च के महीने से ही मौसम तेजी से गर्म होने लगता है, जिससे विलायती गायों के दूध उत्पादन पर 35-40 प्रतिशत तक कमी आ रही है, जबकि भैंस के उत्पादन पर गर्मी के मौसम में 10-15 प्रतिशत तक कमी दर्ज की जा रही है। पंजाब में 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढऩे पर धान की पैदावार में 5 प्रतिशत कमी आएगी, जबकि गेहूं की पैदावार में 20 प्रतिशत की कमी होगी।
ऐसे हालात से निपटने के लिए क्या करना होगा
मौसम विभाग चंडीगढ़ के डायरेक्टर डॉ. सुरिंदर पाल का कहना है कि हर साल बदल रहे मौसम के पैटर्न के चलते हमें अपनी योजनाएं भी पैटर्न के अनुसार बदलनी पड़ेंगी। पंजाब की बात करें तो 1971 से लेकर 2000 तक .5 डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि दर्ज की गई है। 2021 से 2050 तक ये वृद्धि 1.0 से लेकर 1.8 डिग्री सेल्सियस तक होने का अनुमान है, जबकि शताब्दी के अंत तक तापमान में 4.0 से लेकर 4.4 डिग्री सेल्सियस तक तापमान बढ़ने का अनुमान है, ऐसे में मौसम के बदलते पैर्टन के अनुसार योजनाएं नहीं बनाईं गई तो मुश्किल होगी। किसानों के लिए बनने वाला प्लान, हेल्थ क्षेत्र में बनने वाली योजनाएं सरकारों को बदलते पैटर्न के अनुसार बनाने के लिए अभी से तैयार रहना होगा।
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एक्स्ट्रीम वेदर कंडीशन बन रहे हैं
मौसम विज्ञानी वसुधा फाउंडेशन दिल्ली के रमन मेहता का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के साथ वेस्टर्न डिस्टर्वेंस के कारण हर साल का वातावरण का पैटर्न बदल रहा है। गर्मियों का पीरियड बढ़ रहा है, तापमान में भी वृद्धि हो रही है, जबकि सर्दियों व रेन फॉल का टाइम पीरिएड घट रहा है, लेकिन एक्स्ट्रीम रेन फॉल हो रहा है। पिछले बरसात के सीजन में मोहाली में 3 घंटे में रिकॉर्ड 10 मिलीमीटर बारिश हुई, जिससे शहर में बाढ़ जैसे हालात बन गए। इसी प्रकार सर्दी का पीरिएड तो कम हो रहा है, लेकिन एक्स्ट्रीम सर्दी रिकॉर्ड की जा रही है।
मिजोरम ने पेश किया उदाहरण
मैनेजिंग एडीटर ऑफ इंडिया साइंस वायर एवं दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश सी. शर्मा ने कहा कि मिजोरम ने इस क्षेत्र में उदाहरण पेश किया है। मौसम के बदलते पैटर्न को वहां से शासकों ने समझा। ड्रैगन फ्रूट आम तौर पर थाईलैंड में होता है। मिजोरम का तापमान बढ़ा तो थाईलैंड से ड्रैगन फ्रूट क बीज लाकर यहां पैदावार शुरू की, कुछ ही सालों में अच्छे परिणाम सामने आए हैं, किसानों को ज्यादा आमदनी हो रही है, मिजोरम का बदला मौसम अब ड्रैगन फ्रूट की पैदावार के अनुकूल हो सकता है। इसी प्रकार की संभावनाएं हमें पंजाब व दूसरे राज्यों में भी तलाशनी होंगी। पंजाब अगर सिर्फ धान व चावल पर ही निर्भर रहा तो आने वाला समय यहां के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा।
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ग्लोबल वॉर्मिंग का अंटार्कटिका पर पड़ रहा बुरा असर
इसी साल गर्मियों में अंटार्कटिका से 5800 वर्ग किलोमीटर का एक हिस्सा टूटकर अलग हो गया था। Jagran.Com ने 13 जुलाई 2017 को भी अपनी एक विशेष खबर में बताया था कि जितना बड़ा हिस्सा टूटा है उसमें हमारे देश की राजधानी दिल्ली जैसे 4 शहर समा सकते हैं।
अंटार्कटिका की बर्फ में मिला रहस्यमय छिद्र
14 अक्टूबर को हमने खबर दी थी कि वैज्ञानिकों को अंटार्कटिका की जमी हुई समुद्री बर्फ में हाल ही में एक विशालकाय और रहस्यमय छिद्र दिखा है, जिसका श्रेत्रफल 80 हजार वर्ग किलोमीटर है। यह छिद्र असामान्य और विचित्र किस्म का है, क्योंकि यह आकार में काफी बड़ा है। दूसरा, यह उस तट से काफी दूर है, जहां अक्सर पानी के पैचेज देखे जाते हैं। इसे पॉलीन्या कहा जा रहा है।
ये मौत तो बहुत तेज निकली...
खतरा अंटार्कटिका को ही नहीं, बल्कि आर्कटिक भी खतरे में है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण तीन दशकों में आर्कटिक पर बर्फ का क्षेत्रफल करीब आधा हो गया है। आर्कटिक काउंसिल की एक रिपोर्ट ‘स्नो, वॉटर, आइस, पर्माफ्रॉस्ट इन द आर्कटिक’ (स्वाइपा) के मुताबिक 2040 तक आर्कटिक की बर्फ पूरी तरह से पिघल जाएगी। पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि यह बर्फ 2070 तक ख़त्म होगी, लेकिन असामान्य और अनियमित मौसम चक्र की वजह से यह और भी तेजी से पिघल जाएगी। पर्यावरणविदों के अनुसार आर्कटिक की बर्फ पिघलने से पृथ्वी के वातावरण में भयावह परिवर्तन हो सकते हैं। यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय पत्रिका द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित हुई है। इस साल सात मार्च को आर्कटिक में सबसे कम बर्फ मापी गई।
ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए जिम्मेदार कौन
हम इंसानों ने पिछली करीब एक सदी में प्रकृति के साथ जितनी छेड़छाड़ की है, उतनी शायद ही पहले कभी की हो। इसी एक सदी के दौरान विश्व में जनसंख्या विस्फोट देखने को मिला, खासकर 20वीं सदी के अंतिम 40 सालों में। इसके अलावा इंसान ने अपनी जरूरतों के लिए ऐसे-ऐसे अविष्कार किए और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की कि पर्यावरण का संतुलन ही बिगड़कर रह गया।
- साथ में जालंधर से सत्येन ओझा