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दिल्ली से चार गुना बड़ा हिस्सा महाद्वीप से टूटकर हुआ अलग, दुनिया के लिए बजी खतरे की घंटी

अंटार्कटिका से 5800 वर्ग किलोमीटर का एक हिस्सा टूटकर अलग हो गया है। आसान भाषा में समझने के लिए बता दें कि जितना हिस्सा टूटकर अलग हुआ है उसमें दिल्ली जैसे 4 शहर समा सकते हैं।

By Digpal SinghEdited By: Published: Thu, 13 Jul 2017 06:33 PM (IST)Updated: Wed, 26 Jul 2017 01:35 PM (IST)
दिल्ली से चार गुना बड़ा हिस्सा महाद्वीप से टूटकर हुआ अलग, दुनिया के लिए बजी खतरे की घंटी

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। हम इंसानों ने पिछली करीब एक सदी में प्रकृति के साथ जितनी छेड़छाड़ की है, उतनी शायद ही पहले कभी की हो। इसी एक सदी के दौरान विश्व में जनसंख्या विस्फोट देखने को मिला, खासकर 20वीं सदी के अंतिम 40 सालों में। इसके अलावा इंसान ने अपनी जरूरतों के लिए ऐसे-ऐसे अविष्कार किए और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की कि पर्यावरण का संतुलन ही बिगड़कर रह गया।

अगर आप पर्यावरण के प्रति सोचते हैं तो यह खबर आपके लिए चिंता का विषय हो सकती है। वैज्ञानिकों ने बुधवार को यह डरावनी ख़बर दी। ख़बर यह है कि अंटार्कटिका का एक बड़ा हिस्सा टूटकर अलग हो गया है। बता दें कि अंटार्कटिका का 98 फीसद हिस्सा बर्फ से ढका हुआ है और जो हिस्सा टूटा है वह करीब एक खरब टन का आइसबर्ग है। आप इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि जो हिस्सा टूटा है उस अकेले हिस्से में ही अमेरिका के न्यूयॉर्क जैसे 7 शहर समा सकते हैं। जाहिर है इस चट्टान के टूटने से अंटार्कटिका की सूरत बदल जाएगी।

Jagran.Com ने 10 मई को एक खबर पब्लिश की थी, जिसका शीर्षक था - 'जिसे अब तक धीमी मौत मान रहे थे वह तो तेज निकली, सिर्फ 23 साल और...'

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उस खबर को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...

इस खबर में हमने बताया था कि अंटार्कटिक के एक बड़े हिस्से में दरार दिख रही है। अगर यह हिस्सा टूटा एक बड़ा हिस्सा अंटार्कटिका से अलग हो जाएगा। जब हमने ख़बर दी थी उस समय तक अंटार्कटिक के पूर्वी तट पर यह दरार अब 111 मील लंबी हो चुकी थी। साल 2011 से मई 2017 तक यह 50 मील और बढ़ गई थी। इस दरार के बढ़ने की रफ्तार 3 फीट प्रतिदिन तक थी।

पहले से था इसके अलग होने का अंदेशा
जैसा हमने हमने 10 मई की अपनी स्पेशल स्टोरी बताया था कि वैज्ञानिक कई महीनों से इस हिमशैल के टूटने का पूर्वानुमान लगा रहे थे। यह आइसबर्ग अब तक के दर्ज आंकड़ों में सबसे बड़ा है। पर्यावरण के लिहाज से चिंताजनक होने के अलावा यह दक्षिणी ध्रुव के आसपास जहाजों के लिए भी गंभीर ख़तरा बन सकता है। ये अंटार्कटिका के उत्तर-पूर्वी किनारे की लार्सन चट्टान का हिस्सा था। लार्सन सी बर्फ की चट्टान से 5800 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा अलग हो जाने से इसका आकार 12 फीसदी से ज्यादा घट गया है और इसी के साथ अंटार्कटिक प्रायद्वीप का परिदृश्य हमेशा के लिए बदल गया है।



अंटार्कटिका से अक्सर टूटते रहते हैं हिमशैल
इससे पहले लार्सन-ए और लार्सन-बी भी लार्सन बर्फ की चट्टान से अलग हो चुके हैं। अब इस बर्फ की चट्टान के टूटने के बाद लार्सन कमजोर हो सकती है। लार्सन-सी का टूटना तेजी से गर्म हो रही धरती के लिए एक और ख़तरे की घंटी साबित हो सकती है। अंटार्कटिका से हमेशा हिमशैल अलग होते रहते हैं, लेकिन यह काफी बड़ा है, ऐसे में महासागर में जाने के इसके रास्ते पर निगरानी की खास जरूरत होगी। सालों से पश्चिमी अंटार्कटिक हिम चट्टान में बढ़ती दरार को देख रहे शोधकर्ताओं ने कहा कि यह घटना 10 जुलाई से लेकर 12 जुलाई के बीच किसी समय हुई है।

ऐसा नहीं है कि ख़तरे की घंटी सिर्फ अंटार्कटिका से ही बजी हो। ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनियाभर में ग्लेशियरों की पिघलने की रफ्तार काफी तेज हो गई है। आर्कटिक में भी 1975 से 2012 के बीच बर्फ की मोटाई 65 फीसद घट चुकी है। अब तक कहा जा रहा था कि हमारे ग्लेशियर धीमी मौत मर रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में पता चला है कि असल में यह रफ्तार काफी तेज है। डराने वाले आंकड़े यह हैं कि 1975 से 2012 के बीच आर्कटिक बर्फ की मोटाई 65 फीसद घटी है। 1979 के बाद प्रत्येक दशक में आर्कटिक की बर्फ घटने की दर 2.8 फीसद रही है।

ये मौत तो बहुत तेज है...
ग्लोबल वार्मिंग के कारण तीन दशकों में आर्कटिक पर बर्फ का क्षेत्रफल करीब आधा हो गया है। आर्कटिक काउंसिल की ताजा रिपोर्ट ‘स्नो, वॉटर, आइस, पर्माफ्रॉस्ट इन द आर्कटिक’ (स्वाइपा) के मुताबिक 2040 तक आर्कटिक की बर्फ पूरी तरह से पिघल जाएगी। पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि यह बर्फ 2070 तक ख़त्म होगी, लेकिन असामान्य और अनियमित मौसम चक्र की वजह से यह और भी तेजी से पिघल जाएगी। पर्यावरणविदों के अनुसार आर्कटिक की बर्फ पिघलने से पृथ्वी के वातावरण में भयावह परिवर्तन हो सकते हैं। यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय पत्रिका द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित हुई है। इस साल सात मार्च को आर्कटिक में सबसे कम बर्फ मापी गई।

मौसम में होंगे भयानक बदलाव
ग्लोबल वार्मिंग के कारण अगले कुछ सालों में दुनियाभर के मौसम में भयानक बदलाव देखने को मिलेंगे। ध्रुवों और ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र के बीच तापमान में अंतर के कारण पृथ्वी के बड़े हिस्से में हवाएं चलती हैं। अगर आर्कटिक का तापमान ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र के मुकाबले तेजी से बढ़ेगा तो धरती के अप्रत्याशित स्थानों पर बेमौसम लू चलेगी और यह मानव जीवन के लिए चिंता का विषय है। आर्कटिक में पर्माफ्रॉस्ट (बर्फ से ढकी मिट्टी की परत) में बड़ी मात्रा में जैव पदार्थ मौजूद हैं। बर्फ के पिघलने से यह पदार्थ गर्मी में जलकर कार्बनडाइ ऑक्साइड या मीथेन के रूप में वातावरण में घुल जाएंगे। इससे ग्लोबल वार्मिंग और तेज होगी।

डूब क्षेत्र में आ जाएंगे मुंबई सहित दुनियाभर के तटीय शहर
आर्कटिक घेरे में स्थित ग्रीनलैंड के बर्फ क्षेत्र में पृथ्वी का दस फीसद मीठा पानी है। अगर वहां की बर्फ पिघलती है तो समुद्र का स्तर इस सदी के अंत तक 74 सेमी से भी अधिक बढ़ जाएगा, जो ख़तरनाक साबित हो सकता है। इससे मुंबई, चेन्नई, मेलबर्न, सिडनी, केपटाउन, शांघाई, लंदन, लिस्बन, कराची, न्यूयार्क, रियो-डि जनेरियो जैसे दुनिया के तमाम खूबसूरत और समुद्र के किनारे बसे शहरों को ख़तरा हो सकता है।

बता दें कि समुद्र का पानी बर्फ के मुकाबले गहरे रंग का होता है। ऐसे में यह ज्यादा गर्मी सोखता है। आर्कटिक पर जितनी ज्यादा बर्फ पिघलेगी, उतना ही अधिक पानी गर्मी को सोखेगा, जिससे बर्फ पिघलने की रफ्तार और भी ज्यादा बढ़ जाएगी। मेलबर्न विश्वविद्यालय के शोध के अनुसार 2026 तक धरती का तापमान 1.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा, इस तरह से अनुमान लगाया जा सकता है कि धरती का तापमान कितनी तेजी से बढ़ रहा है। अगर इसी रफ्तार से धरती का तापमान बढ़ता रहा तो ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने की रफ्तार और भी बढ़ेगी।

भारत पर असर

आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र के प्रवाह पर भी असर पड़ेगा। इससे प्रशांत महासागर में अल नीनो का असर तेज़ होने के साथ भारतीय मानसून भी प्रभावित होगा। ऐसा नहीं है कि सिर्फ आर्कटिक की ही बर्फ तेजी से पिघल रही है। अंटार्कटिक की बर्फ पिघलने की रफ्तार भी काफी तेज़ है। ताजा घटना ने तो सभी पर्यावरणविदों को चिंता में डाल दिया है। ऐसा होने से हिंद महासागर का तापमान भी बढ़ेगा, जो भारत में मानसून की रफ्तार प्रभावित करेगा।


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