जिसे अब तक धीमी मौत मान रहे थे वह तो तेज निकली, सिर्फ 23 साल और...
आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र के प्रवाह पर भी असर पड़ेगा। इससे प्रशांत महासागर में अल नीनो का असर तेज होने के साथ भारतीय मानसून भी प्रभावित होगा।
नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। हम इंसानों ने पिछले करीब एक सदी में प्रकृति के साथ जितनी छेड़छाड़ की है, उतनी पहले कभी नहीं की। इसी एक सदी के दौरान विश्व की जनसंख्या भी काफी तेजी से बढ़ी है। इंसान ने अपनी जरूरतों के लिए ऐसे-ऐसे अविष्कार किए और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की कि पर्यावरण का संतुलन ही बिगड़कर रह गया।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं और पिछले कुछ सालों में इनकी पिघलने की रफ्तार और भी तेज हो गई है। जी हां अब तक कहा जा रहा था कि हमारे ग्लेशियर धीमी मौत मर रहे हैं, लेकिन अब पता जला है कि असल में यह रफ्तार काफी तेज है।
डराने वाले आंकड़े यह हैं कि 1975 से 2012 के बीच आर्कटिक बर्फ की मोटाई 65 फीसद घटी है। 1979 के बाद प्रत्येक दशक में आर्कटिक की बर्फ घटने की दर 2.8 फीसद रही है।
2040 तक खत्म हो जाएगी आर्कटिक की बर्फ
ग्लोबल वार्मिंग के कारण तीन दशकों में आर्कटिक पर बर्फ का क्षेत्रफल करीब आधा हो गया है। आर्कटिक काउंसिल की ताजा रिपोर्ट ‘स्नो, वॉटर, आइस, पर्माफ्रॉस्ट इन द आर्कटिक’ (स्वाइपा) के मुताबिक 2040 तक आर्कटिक की बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी। पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि यह बर्फ 2070 तक खत्म होगी, लेकिन असामान्य और अनियमित मौसम चक्र की वजह से यह जल्दी पिघल जाएगी।
पर्यावरणविदों के अनुसार आर्कटिक की बर्फ पिघलने से पृथ्वी के वातावरण में भयावह परिवर्तन आ सकते हैं। यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय पत्रिका द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित हुई है। इस साल सात मार्च को आर्कटिक में सबसे कम बर्फ मापी गई।
अगले कुछ सालों में दिखेंगे भयानक बदलाव
ग्लोबल वार्मिंग के कारण अगले कुछ सालों में दुनियाभर के मौसम में भयानक बदलाव देखने को मिलेंगे। ध्रुवों और ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र के बीच तापमान में अंतर के कारण पृथ्वी के बड़े हिस्से में हवाएं चलती हैं। अगर आर्कटिक का तापमान ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र के मुकाबले तेजी से बढ़ेगा तो धरती के अप्रत्याशित स्थानों पर बेमौसम लू चलेगी और यह मानव जीवन के लिए चिंता का विषय है।
आर्कटिक में पर्माफ्रॉस्ट (बर्फ से ढकी मिट्टी की परत) में बड़ी मात्रा में जैव पदार्थ मौजूद हैं। बर्फ के पिघलने से यह पदार्थ गर्मी में जलकर कार्बनडाइ ऑक्साइड या मीथेन के रूप में वातावरण में घुल जाएंगे। इससे ग्लोबल वार्मिंग और तेज होगी।
समुद्र का जलस्तर बढ़ने से होगी परेशानी
आर्कटिक घेरे में स्थित ग्रीनलैंड के बर्फ क्षेत्र में पृथ्वी का दस फीसद मीठा पानी है। अगर वहां की बर्फ पिघलती है तो समुद्र का स्तर इस सदी के अंत तक 74 सेमी से भी अधिक बढ़ जाएगा, जो खतरनाक साबित हो सकता है। इससे मुंबई, चेन्नई, मेलबर्न, सिडनी, केपटाउन, शांघाई, लंदन, लिस्बन, कराची, न्यूयार्क, रियो-डि जनेरियो जैसे दुनिया के तमाम खूबसूरत और समुद्र के किनारे बसे शहरों को खतरा हो सकता है।
बता दें कि समुद्र का पानी बर्फ के मुकाबले गहरे रंग का होता है। ऐसे में यह ज्यादा गर्मी सोखता है। आर्कटिक पर जितनी ज्यादा बर्फ पिघलेगी, उतना ही अधिक पानी गर्मी को सोखेगा, जिससे बर्फ पिघलने की रफ्तार और भी ज्यादा बढ़ जाएगी। मेलबर्न विश्वविद्यालय के शोध के अनुसार 2026 तक धरती का तापमान 1.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा, इस तरह से अनुमान लगाया जा सकता है कि धरती का तापमान कितनी तेजी से बढ़ रहा है। अगर इसी रफ्तार से धरती का तापमान बढ़ता रहा तो ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने की रफ्तार और भी बढ़ेगी।
भारत पर असर
आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र के प्रवाह पर भी असर पड़ेगा। इससे प्रशांत महासागर में अल नीनो का असर तेज होने के साथ भारतीय मानसून भी प्रभावित होगा। ऐसा नहीं है कि सिर्फ आर्कटिक की ही बर्फ तेजी से पिघल रही है। अंटार्कटिक की बर्फ पिघलने की रफ्तार भी काफी तेज है। ऐसा होने से हिंद महासागर का तापमान भी बढ़ेगा, जो भारत में मानसून की रफ्तार प्रभावित करेगा।
अंटार्कटिक से भी डरावनी खबर
उधर अंटार्कटिक से भी एक डरावनी खबर यह है कि यहां के सबसे बड़े बर्फ के हिस्से में दरार देखी गई है। वैज्ञानिकों को डर है कि यह दो हिस्सों में टूट सकता है। अगर यह हिस्सा टूटा तो करीब 2000 वर्ग मील का हिस्सा अलग हो जाएगा। अंटार्कटिक के पूर्वी तट पर यह दरार अब 111 मील लंबी हो चुकी है। साल 2011 से अब तक यह 50 मील और बढ़ गई है। अब यह दरार लंबाई में तो नहीं बढ़ रही है, लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया है कि पिछले कुछ महीनों यह दरार लगातार चौड़ी होती जा रही है। इसकी रफ्तार 3 फीट प्रतिदिन तक है। फिलहाल भी यह करीब 1000 फीट चौड़ी हो चुकी है।
इसमें और भी डराने वाली बात यह है कि वैज्ञानियों को अब एक नई दरार का पता चला है। यह नई दरार मुख्य हिमखंड से शुरू हुई है और पुरानी दरार के छोर से 6 मील नीचे है। यह हिस्सा लगातार समुद्र की ओर बढ़ रहा है। हिमखंड की यह नई शाखा करीब 9 मील लंबी है।
ऐसी कोशिशें उम्मीद जगाती हैं...
ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिस तेजी से दुनियाभर में ग्लेशियरों की बर्फ पिघल रही है उसे देखते हुए आशंका जताई जा रही है कि अब वह दिन दूर नहीं, जब धरती हिम मुक्त हो जाएगी। हालांकि वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के सामने घुटने टेकने को कतई तैयार नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने न सिर्फ बर्फ के पिघलने की रफ्तार को थामने के लिए प्रयास किए हैं, कृत्रिम बर्फ जमाकर ग्लेशियरों को फिर से बर्फ से लबालब भरने की तैयारी में हैं।
विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक वैज्ञानिक स्नो मशीनों के जरिए कृत्रिम बर्फ से ग्लेशियर को दुरुस्त करेंगे। परियोजना की शुरुआत स्विट्जरलैंड के मॉट्राश ग्लेशियर से की जाएगी। बता दें कि स्विट्जरलैंड स्थित मॉट्राश ग्लेशियर आल्प्स पर्वत श्रंखला का हिस्सा हैं। हर साल इस पर 40 फुट बर्फ जमती है। यह ग्लेशियर पयर्टकों के बीच खासा लोकप्रिय है और स्कीइंग करने का पसंदीदा ठिकाना माना जाता है।
एरिजोना यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने आर्कटिक की घटती बर्फ को बढ़ाने के लिए भी एक योजना पेश की थी। इसके तहत वे आर्कटिक क्षेत्र में पवन ऊर्जा संचालित पंप लगाएंगे। ये पंप बर्फ की सतह पर पानी का छिड़काव करेंगे। बर्फ की सतह पर पहुंचते ही यह पानी जम जाएगा और बर्फ की चादर मोटी हो जाएगी। कृत्रिम बर्फ से ठकने पर ग्लेशियर पर गर्मी का असर नहीं होगा।
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