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    सिंधु जल समझौते पर भारत को बढ़त, किशनगंगा प्रोजेक्ट का रास्ता साफ

    By Lalit RaiEdited By:
    Updated: Mon, 07 Aug 2017 11:15 AM (IST)

    सिंधु जल संधि पर विश्व बैंक ने स्पष्ट किया है कि इसके तहत भारत जम्मू-कश्मीर में बहने वाली पश्चिमी नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं लगा सकता है।

    सिंधु जल समझौते पर भारत को बढ़त, किशनगंगा प्रोजेक्ट का रास्ता साफ

    प्रमोद भार्गव


    सिंधु जल संधि पर विश्व बैंक ने पाकिस्तान को करारा झटका दिया है। विश्व बैंक ने स्पष्ट किया है कि इस संधि के तहत भारत जम्मू-कश्मीर में बहने वाली पश्चिमी नदियों पर हाइड्रोपावर परियोजनाएं लगा सकता है। दरअसल जम्मू-कश्मीर में प्रस्तावित किशनगंगा और रातले पर निर्माणाधीन हाइड्रोपावर परियोजना के आकार और ढांचे को लेकर पाकिस्तान को आपत्ति थी। उसने पिछले साल विश्व बैंक में शिकायत की थी। उसकी मांग थी कि 57 वर्ष पुरानी जल संधि में मध्यस्थ विश्व बैंक इस विवाद का हल निकाले। इस मांग के आधार पर जब संधि के 57 साल पुराने कागज खंगाले गए, तब साफ हुआ कि संधि में ङोलम और चिनाब के साथ सिंधु नदियों को पश्चिमी नदियों के तौर पर परिभाषित किया गया है। पाकिस्तान पर इनके पानी के इस्तेमाल को लेकर कोई बंदिश नहीं है। वहीं, भारत जिन रूपों में भी चाहे इन नदियों का पानी इस्तेमाल कर सकता है। इन पर हाइड्रोपावर परियोजना भी लगा सकता है। इस सफाई के बाद सिंधु जल संधि की सीमाओं के तहत भारत इन नदियों का अधिकतम पानी अपने तरीके से दोहन करने को स्वतंत्र है।

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    सिंधु जल-संधि का ढांचा ऐसा है जिससे भारत को अपनी भूमि पर नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र होने के बावजूद 60,000 करोड़ रुपये का सालाना नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसके बावजूद पाकिस्तान ने किशनगंगा विद्युत परियोजना पर आपत्ति दर्ज की थी। मालूम हो, विश्व बैंक की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने सिंधु जल-संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इसके अंतर्गत पाकिस्तान से पूर्वी क्षेत्र की तीन नदियों व्यास, रावी और सतलज की जल राशि पर नियंत्रण भारत के सुपुर्द किया गया था और पश्चिमी नदियों सिंधु, चिनाब व ङोलम पर नियंत्रण की जिम्मेदारी पाक को सौंपी थी। इसके तहत भारत के ऊपरी हिस्से में बहने वाली इन छह नदियों का 167.2 अरब घन मीटर पानी पाकिस्तान को हर साल दिया जाता है। जबकि भारत के हिस्से में महज 19.48 प्रतिशत पानी ही शेष रहता है। नदियों की ऊपरी धारा (भारत में बहने वाला पानी) के बंटवारे में उदारता की ऐसी अनूठी मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जल-समझौते में देखने में नहीं मिलती है। मगर यह संधि केवल इसलिए सफल है, क्योंकि भारत संधियों की शर्तो को निभाने को लेकर प्रतिबद्ध बना हुआ है। भारत की भूमि पर इन नदियों का अकूत जल भंडार होने के बावजूद इस संधि के चलते इस राज्य को बिजली नहीं मिल पा रही है। दरअसल सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिश्चित की गई है। इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और ङोलम पूरी तरह पाकिस्तान को दे दी गई हैं। इसके उलट भारतीय संप्रभुता क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलज नदियों के बचे हुए हिस्से में ही जल सीमित रह गया है। इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतरदेशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है। संधि की असमान शर्तो के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, बल्कि बालिदान कर देता है। इतनी बेजोड़ संधि होने के बावजूद पाकिस्तान ने भारत की शालीनता का उत्तर पूरे जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में आतंकी हमलों के रूप में तो दिया ही, अब इनका विस्तार भारतीय सेना व पुलिस के सुरक्षित ठिकानों तक भी हो गया है।


    हैरानी है कि इस संधि को तोड़ने की हिम्मत न तो 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दिखाई गई और न ही 1971 में। हालांकि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में विभाजित कर नए राष्ट्र बांग्लादेश को अस्तित्व में लाने की बड़ी कूटनीतिक सफलता हासिल की थी। कारगिल युद्ध के समय भी हम इस संधि को तोड़ने से हम चूक कर गए हैं। दरअसल पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरोशी शुमार है। इसीलिए भारत ने जब ङोलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ‘किशन गंगा जल विद्युत परियोजना’ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ‘अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय’ में 2010 में ही आपात्ति दर्ज करा दी थी। जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले में ङोलम की सहायक किशनगंगा नदी पर 330 मेगावाट और चिनाब की सहायक नदी रातले पर 850 मेगावाट की जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। हालांकि 20 दिसंबर 2013 को इसका फैसला भी हो गया। ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधने में असफल रहा है। न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी, लेकिन भारत को बाध्य किया गया कि वह ‘रन ऑफ दि रिवर‘ प्रणाली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे। फैसले के मुताबिक किशनगंगा नदी में पूरे साल हर समय 9 क्यूसिक मीटर प्रति सेकेंड का न्यूनतम जल प्रवाह जारी रहेगा। हालांकि पाकिस्तान ने अपील में 100 क्यूसिक मीटर प्रति सेकेंड पानी के प्राकृतिक प्रवाह की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने नहीं माना। पाकिस्तान ने सिंधु जल-समझौते का उल्लंघन मानते हुए भारत के खिलाफ यह अपील दायर की थी। इसके पहले पाकिस्तान ने बगलिहार जल विद्युत परियोजना पर भी आपत्ति की थी। जिसे विश्व बैंक ने निरस्त कर दिया था।


    किशनगंगा को पाकिस्तान में नीलम नदी के नाम से जाना जाता है। इसके तहत इस नदी पर 37 मीटर यानी 121 फीट ऊंचा बांध बनाया जाना है। बांध की गहराई 103 मीटर होगी। यह स्थल गुरेज घाटी में है। इसका निर्माण पूरा होने वाला है। बांध बनने के बाद किशनगंगा के पानी को बोनार मदमती नाले में प्रवाहित किया जाएगा। भारत ने इस परियोजना की शुरुआत 2007 में 3642.04 करोड़ की लागत से की थी। न्यायालय के फैसले के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न यह खड़ा होता है कि यदि किसी साल पानी कम बरसता है और किशनगंगा नदी के बांध में पानी छोड़ने के लायक रह ही नहीं जाता है तो रन ऑफ दी रीवर प्रणाली का सिद्धांत अमल में कैसे लाया जाएगा? इस लिहाज से यह फैसला सिंधु जल-संधि की संकीर्ण व्याख्या है। कालांतर में पाकिस्तान को यदि इस फैसले के मुताबिक पानी नहीं मिलता है तो उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि भारत अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय के फरमान का सम्मान नहीं कर रहा है। इसलिए भारत को सिंधु जल-बंटवारे पर पुनर्विचार की जरूरत है।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
     

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