कभी रास नहीं आई हीरो की एक्टिंग
मुंबई [अजय ब्रह्मात्मज]। एटीट्यूड और स्टाइल प्राण में शुरू से ही था। लाहौर में राम लुभाया की पान की दुकान के सामने पान मुंह में डालने और चबाने के उनके ...और पढ़ें

मुंबई [अजय ब्रह्मात्मज]। एटीट्यूड और स्टाइल प्राण में शुरू से ही था। लाहौर में राम लुभाया की पान की दुकान के सामने पान मुंह में डालने और चबाने के उनके अंदाज से वली मुहम्मद वली प्रभावित हुए। उन्हें प्राण में अपना खलनायक दिख गया। उन्होंने ज्यादा बातचीत नहीं की। बस अपनी लिखी पंजाबी फिल्म 'यमला जट' के लिए उन्हें राजी कर लिया। प्राण ने फिर पलट कर नहीं देखा।
अपनी तीसरी फिल्म 'खानदान' में प्राण को नूरजहां के साथ नायक की भूमिका मिली। लेकिन, जब प्राण ने फिल्म देखी तो उन्होंने खुद को रिजेक्ट कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि हीरो की भूमिका में वे जंच नहीं रहे। उन्होंने अपनी जीवनी और इंटरव्यू में भी हमेशा जिक्र किया कि उन्हें गीत गाने और हीरोइन के पीछे भागने में दिक्कत हुई थी। हीरो की एक्टिंग के लिए जरूरी ये दोनों बातें उन्हें खुद पर नहीं फबीं।
भारत विभाजन से पहले प्राण लाहौर में 20 से अधिक फिल्में कर चुके थे। आजादी के एक साल पहले से माहौल बदतर हो रहा था। तबाही का अनुमान कर उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को इंदौर भेज दिया था। पत्नी की जिद पर बेटे के पहले जन्मदिन में शामिल होने के लिए प्राण 10 अगस्त, 1947 को इंदौर पहुंचे और फिर कभी लाहौर नहीं लौट सके। रिश्तेदारों से कुछ उधार लेकर वे मुंबई आए। यहां आठ महीने के इंतजार के बाद सआदत हसन मंटो, श्याम और कुक्कू की सिफारिश से उन्हें बांबे टॉकीज की फिल्म मिली। पारिश्रमिक 500 रुपये तय हुआ। भारत में उनकी पहली फिल्म देवआनंद के साथ 'जिद्दी' थी। तब से 1998 तक वह विभिन्न भूमिकाओं में फिल्मों में दिखते रहे।
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