हैरानी की बात! सीबीआइ नहीं जानती आरुषि मर्डर का सच
डॉक्टर राजेश और नूपुर तलवार भले ही अपनी बेटी आरुषि की हत्या के आरोप में अदालती कार्रवाई का सामना कर रहे हों, लेकिन हकीकत यही है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ दोहरी हत्याकांड की इस गुत्थी को सुलझाने में पूरी तरह नाकाम रही। ढाई साल की जांच और कई उलटफेर के बाद अंतत सीबीआइ ने अदालत से केस को बंद करने की अपील [क्लोजर रिपोर्ट] की थी।
नई दिल्ली [नीलू रंजन]। डॉक्टर राजेश और नूपुर तलवार भले ही अपनी बेटी आरुषि की हत्या के आरोप में अदालती कार्रवाई का सामना कर रहे हों, लेकिन हकीकत यही है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ दोहरी हत्याकांड की इस गुत्थी को सुलझाने में पूरी तरह नाकाम रही। ढाई साल की जांच और कई उलटफेर के बाद अंतत सीबीआइ ने अदालत से केस को बंद करने की अपील [क्लोजर रिपोर्ट] की थी।
आरुषि हत्याकांड को सुलझाने में असमर्थता न सिर्फ सीबीआइ की क्षमता, बल्कि कार्यशैली पर भी सवालिया निशान लगाती है। ढाई साल के दौरान सीबीआइ अपने ही जांच के निष्कर्षो से पलटती रही। जांच की कमान सबसे पहले एक जून, 2008 को सीबीआइ के तत्कालीन संयुक्त निदेशक अरुण कुमार ने संभाली और 10 दिन के भीतर ही उन्होंने तीन नौकरों कृष्णा, राजकुमार और विजय मंडल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन उनकी टीम हत्या में उपयोग किए गए हथियार के साथ आरुषि और हेमराज का मोबाइल फोन भी नहीं ढूंढ पाई। अरुण कुमार ने केवल नार्को टेस्ट के आधार पर उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल करना चाहा। यही नहीं, अदालत में उन्होंने राजेश तलवार को क्लीन चिट देकर जमानत पर रिहा भी करवा दिया। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने राजेश तलवार को दोषी मानते हुए गिरफ्तार किया था।
अगस्त, 2008 में सीबीआइ निदेशक बने अश्विनी कुमार ने तीनों नौकरों के खिलाफ चार्जशीट के लिए सुबूतों को पर्याप्त नहीं मानते हुए पुरानी टीम को जांच से अलग कर दिया और देहरादून में सीबीआइ के एसपी नीलाभ किशोर को नया जांच अधिकारी नियुक्त कर लखनऊ में सीबीआइ के संयुक्त निदेशक जावेद अहमद को उसकी कमान सौंप दी। नीलाभ किशोर की टीम ने जांच की दिशा को नोएडा पुलिस की जांच के रास्ते पर लौटाते हुए नए सिरे से राजेश तलवार की भूमिका की जांच शुरू की।
सितंबर, 2008 में बुलंदशहर में आरुषि का मोबाइल मिलने के बाद उम्मीद जगी कि नई टीम जल्द ही हत्या की गुत्थी को सुलझा लेगी। लेकिन दो साल से अधिक की मशक्कत के बाद भी नतीजा सिफर निकला। इसे सीबीआइ की एक बड़ी नाकामी स्वीकार करते हुए जांच से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। उन्होंने कहा कि संदेह के घेरे में राजेश तलवार और उसके तीनों नौकर भी हैं। लेकिन इनमें से किसी के खिलाफ ठोस सुबूत नहीं मिल पाया। खासकर हत्या के बाद शराब के गिलास से मिली एक उंगली के निशान की पहचान नहीं की जा सकी, जिसमें आरुषि और हेमराज दोनों के खून लगे थे। हत्या की साजिश की सारी कहानी इस उंगली के निशान तक आकर रुक जाती है। वैसे सीबीआइ सुबूतों को नष्ट करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस की शुरुआती जांच को जिम्मेदार ठहराती है।
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