क्यों होती है दशहरा पर हथियारों की पूजा
विजयदशमी के दिन राम-रावण की लड़ाई और पुतलादहन तो तुमने खूब देखा होगा,पर क्या तुम्हें पता है कि यह हथियारों की पूजा करने का भी त्योहार है ? आखिर क्या है इस परंपरा के पीछे की कहानी...
विजयदशमी के दिन राम-रावण की लड़ाई और पुतलादहन तो तुमने खूब देखा होगा, मेले में तीर- धनुष और तलवार भी खरीदी होगी पर क्या तुम्हें पता है कि यह हथियारों की पूजा करने का भी त्योहार है ? आखिर क्या है इस परंपरा के पीछे की कहानी...
दशहरा, जिसे विजयदशमी भी कहा जाता है, हिंदुओं का प्रसिद्ध पर्व है। इसे भारतीय तथा विश्व भर में फैले भारतवंशी अत्यंत उल्लास से मनाते हैं। ‘दशहरा’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन ‘दश-हर’ से हुई है, जिसका प्रतीकात्मक अर्थ भगवान श्रीराम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने तथा रावण की मृत्यु के रूप में उसके आतंक की समाप्ति से है। रावण के वध से एक दिन पूर्व भगवान श्रीराम ने ‘चंडी पूजा’ के रूप में देवी दुर्गा की उपासना की थी और देवी ने उन्हें विजय का आशीर्वाद दिया था। यह नवरात्र का अंतिम दिन था और इसके अगले दिन (दशमी को) भगवान श्रीराम के हाथों रावण का अंत हुआ, यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी (अर्थात भगवान राम की रावण पर जीत की तिथि) भी कहा जाता है!
दो पौराणिक युद्धों से संबंध
दशहरा अथवा विजयदशमी का संबंध एक नहीं, दो-दो पौराणिक युद्धों से है। अगर त्रेतायुग में भगवान श्रीराम और रावण के बीच संघर्ष इसी दिन समाप्त हुआ था तो वहीं द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध इसी दिन प्रारंभ हुआ था। दो पौराणिक महायुद्धों से संबंध रखने के कारण इस दिन को भारत की योद्धा जातियों ने शस्त्रपूजा के पर्व के रूप में मनाना प्रारंभ किया। यह केवल भूले-बिसरे इतिहास की बात नहीं है, भारतीय सशस्त्र सेनाओं ने भी दशहरा पर शस्त्रपूजा की परंपरा को इसके मूलरूप में स्वीकार कर रखा है। थलसेना की सभी रेजीमेंट्स खासकर मराठा, कुमायूँ, जाट, राजपूत तथा गोरखा में दशहरा पर हथियारों की पूजा की जाती है।
सीलांगण और अहेरिया
विजयदशमी पर महाराष्ट्र और राजस्थान में शस्त्रपूजा अत्यंत उल्लास से की जाती है। इसे महाराष्ट्र में सीलांगण और राजस्थान में अहेरिया कहा जाता है। इन दोनों शब्दों का अर्थ क्रमश: ‘सीमा का उल्लंघन’ और ‘शिकार करना’ है। प्रसिद्ध मराठा शासक छत्रपति शिवाजी तुलजा भवानी के भक्त थे और मान्यता है कि विजयदशमी के दिन स्वयं देवी ने उन्हें रत्नजड़ित मूठ वाली तलवार ‘भवानी’ दी थी। तुलजा भवानी की महत्ता इसी बात से जानी जा सकती है कि वे महाराष्ट्र की राजदेवी हैं और लाखों मराठी उन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। इतिहास गवाह है कि मराठा योद्धा किसी भी बड़े आक्रमण की शुरुआत दशहरा पर ही करते थे। इस दिन एक विशेष दरबार भी लगता था जिसमें बहादुर मराठा योद्वाओं को जागीर और पदवी दी जाती थी।
खूनी संघर्ष में बदली परंपरा
इसी प्रकार राजस्थान में अहेरिया का इतिहास कुछ कम रोचक नहीं है। इस दिन राजपूत शमी के पेड़ की पूजा करके (अज्ञातवास के दौरान अर्जुन ने अपने धनुष ‘गांडीव’ को इसी वृक्ष के एक कोटर में छिपा कर रखा था) देवी दुर्गा की मूर्ति को पालकी में रख दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रतीकात्मक युद्ध करते थे। परंपरा का यह पालन दो बार खूनी संघर्ष में बदल चुका है जब 1434 में बूंदी एवं चित्तौड़गढ़ के बीच अहेरिया ने वास्तविक युद्ध का रूप ले लिया और इसमें राणा कुंभा की मृत्यु हुई। इसी प्रकार महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने गद्दी पर बैठने के बाद पहली विजयदशमी पर उत्ताला दुर्ग में ठहरे मुगल फौजियों का असली अहेरिया (वास्तविक शिकार) करने का संकल्प लिया और इस युद्ध में कई राजपूत सरदार हताहत हुए।
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