तो कुछ इस तरह भी बदल रही है दुनिया
स्नेह और सौहाद्र्र के महीन धागों से बुनी जा रही है भविष्य की एक खुशहाल दुनिया। इस दुनिया के केंद्र में है सौम्यता की शक्ति...
सुहाग चूड़ा पहनकर यूनिवर्सिटी जाती बहुएं हैं तो बच्चों के साथ-साथ पढ़ती मांएं भी हैं। कहीं सासू मां पैक कर रही हैं बहू के लिए टिफिन तो कहीं ननद-भाभी मिलकर बना रही हैं प्रजेंटेशन स्लाइड।
न तलवार उठाई, न लगाए नारे। बस सौम्यता से जीत ली दुनिया घर और बाहर दोनों की। वे घर की धुरी हैं। घर भर की सब हलचलें उन्हीं से हैं और बाहर भी उन्हीं के हौसलों से बदल रही है दुनिया। सुहाग की मेहंदी लगने के साथ ही अब रुक नहीं जाता उनकी कामयाबियों का सफर, बल्कि पूरे परिवार के सहयोग से वे निश्चिंत होकर सपने बुनती हैं और उन्हें पूरा करती हैं। खास यह कि अब ये सिर्फ एटीएम पकड़ाने वाली मशीन भर ही नहीं हैं, बल्कि उनके हाथ में है अपने परिवार का भविष्य तय करने की कमान।
पढ़ेंगी तभी तो बढ़ेंगी
सांबा की रिंपिका हर रोज सुबह उठती हैं। घर का छोटा-मोटा काम निपटाती हैं और तैयार होकर जम्मू की तरफ की बस पकड़ लेती हैं। वह जम्मू के एक महिला कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहीं हैं। वहीं कानपुर की मोना को मार्च से अप्रैल अंत तक घर के काम और अपने छोटे बच्चे की जिम्मेदारियों से भी छुट्टी दे दी गई है। उनकी एमएससी की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं। एक समय था जब शादी होते ही पढ़ाई पर विराम लग जाता था या फिर पति अच्छे पद पर हो तो आर्थिक आत्मनिर्भरता की बात भूल ही जाती थीं लड़कियां, लेकिन अब जमाना बदल रहा है। लड़कियां अपने स्वतंत्र अस्तित्व की पहचान के लिए न शादी के बाद पढ़ाई में बाधा आने देती हैं और न ही नौकरी के लिए होने वाली कड़ी प्रतिस्पद्र्धा से वे घबराती हैं। मोना कहती हैं, ‘जब शादी तय हो रही थी, मैंने उसी समय अपने ससुराल वालों से कह दिया था कि मैं शादी के बाद भी पढ़ाई जारी रखूंगी। उन सभी ने खुशी से सहमति जताई थी, लेकिन जब शादी का एक साल होते ही बेटे का जन्म हुआ तो मैं थोड़ा घबरा गई थी। तब सासू मां ने हिम्मत बढ़ाई कि घबराओ नहीं, हम संभालेंगे बच्चे को, तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। मैं खुशकिस्मत हूं कि मुझे ऐसा परिवार मिला। एमएससी के साथ- साथ मैं एसएससी की परीक्षा की भी तैयारी कर रही हूं।’
जरूरी है संकल्प शक्ति
जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ की रजनी कुमारी, कठुआ की नीलम शर्मा और पटना (बिहार) की निवेदिता झा तीनों शादीशुदा हैं, लेकिन इस समय तीनों ही अपने-अपने घरों से दूर रह रही हैं। रजनी को घर और ससुराल दोनों से दूर एक तीसरे जिले बिलावर में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति मिली है, जबकि नीलम शर्मा पीएचडी में बाधा न आए, इसके लिए ससुराल से दूर हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रही हैं और निवेदिता नोएडा की एक निजी कंपनी में एचआर मैनेजर हैं। वह कहती हैं, ‘क्या लड़कों के लिए यह प्रश्न होता है कि वे शादी और कॅरियर में से किसे चुनेंगे? यदि नहीं तो फिर लड़कियों के लिए ऐसे सवाल क्यों उठाए जाते हैं।’ वहीं रजनी कहती हैं, ‘जब मैं आत्मनिर्भर होऊंगी तो मेरे मायके और ससुराल दोनों को मुझ पर गर्व होगा। आर्थिक आत्मनिर्भरता के महत्व को अब लड़कियां ही नहीं, बल्कि परिवार भी बहुत अच्छे से समझ रहा है। लक्ष्य को हासिल करने के लिए संकल्प शक्ति की जरूरत होती है। अच्छा यह है कि अब पूरा परिवार इस संकल्प में उनके साथ है।’
बदल रही है दुनिया
दिल्ली की हेमलता यादव खुश हैं कि इसी साल कॉनवोकेशन में उन्हें पीएचडी की डिग्री मिल जाएगी। वह कहती हैं, ‘ये मेरी दस साल की तपस्या का फल है। मैंने उपभोक्ता संस्कृति के युग में इतिहास विषय की प्रासांगिकता विषय पर शोध किया है। सच कहूं तो यह मेरी अपनी अस्मिता का शोध परिणाम होगा। मैंने इसके लिए खूब फील्ड वर्क किया है। एक बहू, पत्नी और दो बच्चों की मां के रूप में अपने तमाम दायित्वों को निभाते हुए मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी।’ हेमलता यादव की ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन में दस साल का फासला रहा। वह कहती हैं, ‘संयुक्त परिवार में हम तीन बहुएं हैं। घर की जिम्मेदारियां तो थी हीं, आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए मैंने अपना ट्यूशन सेंटर भी खोला, पर कुछ अधूरा लग रहा था। शादी के दो-तीन साल के अंदर ही दो बच्चे भी हो गए। फिर दस साल बाद मैंने फिर से अपनी पढ़ाई शुरू करने की ठानी। इसमें मेरी जेठानी ने बहुत सहयोग किया। सास-ससुर दोनों बीमार रहते हैं, उनकी साफ-सफाई और खाना खिलाने की जिम्मेदारी भी हम पर थी। हम दोनों लोगों ने इन जिम्मेदारियों को ऐसे संयोजित किया कि मैं एमए, एम.फिल और फिर उसके बाद पीएचडी भी कर पाई। अब लोगों की जरूरतें और मानसिकता दोनों बदल रही हैं। मैं चाहती हूं कि हर इंसान दुनिया की इस बदली हुई तस्वीर को समझे और उसमें अपनी ओर से सकारात्मक सहयोग दे।’
सासू मां ने पढ़ा दी बहुएं
शिमला की मनोरमा वालिया खुद अध्यापिका रही हैं। वह जानती हैं पढ़ाई की अहमियत और स्त्रियों की पढ़ाई में आने वाली रुकावटों का भी उन्हें अच्छी तरह भान है। इसलिए जब अनुपमा उनकी बहू बनकर आईं तो उन्होंने कह दिया कि शादी का मतलब यह नहीं कि तुम पढ़ाई छोड़ दो। अनुपमा उस समय बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा थीं। सासू मां की प्रेरणा से ग्रेजुएशन पूरी हुई, लेकिन जब एमए कर रही थीं तब उनकी गोद में नन्हीं बिटिया आई। इसके बाद भी न सासू मां का सहयोग रुका न अनुपमा की पढ़ाई। अनुपमा कहती हैं, ‘बड़ी बेटी जब तीन साल की थी तो दूसरी बेटी हुई। उन दिनों मैं पत्राचार से बीएड कर रही थी। इस दौरान जब वह चार महीने की थी तो मेरी 21 दिन की कंपलसरी क्लासेज का शेड्यूल आ गया। इसके लिए यूनिवर्सिटी में छह घंटे रुकना जरूरी था। तब मेरी सासू जो स्वयं बतौर सेंटरहेड टीचर जॉब कर रहीं थीं, ने छुट्टियां लीं। दिनभर वही बेटी को संभालतीं, साथ ही क्लास के दौरान मेरी ब्रेक के समय वह बेटी को लेकर यूनिवर्सिटी पहुंच जातीं, ताकि मैं कार में बैठकर उसे फीड दे सकूं। बीएड के बाद एक साल जॉब भी की और फिर बेटे के जन्म के आठ महीने बाद एम.फिल का एंट्रेंस क्लियर कर एम.फिल की। अब इकोनोमिक्स (फाइनेंस) में पीएचडी कर रही हूं। तीन बच्चों के साथ यहां तक पहुंच पाई हूं तो इसका श्रेय जितना मेरी मेहनत को है, उतना ही सासू मां के सहयोग को भी है।’ अनुपमा के बाद जब प्रीति इस परिवार की बहू बनकर आईं तो उनके सामने भी जेठानी की मेहनत और सासू मां के सहयोग का उदाहरण था। घर में आराम से बैठने की बजाय उन्होंने भी मेहनत की वही राह चुनी। प्रीति कहती हैं, ‘जब ब्याह कर आयी थी तो केवल ग्रेजुएशन की हुई थी। घर में बड़ी भाभी को पढ़ते देखा तो मुझे भी लगा कि जिंदगी और बेहतर हो सकती है अगर हम मेहनत में कोताही न करें तो। यही वजह है कि आज मैं राजनीति शास्त्र में एमए, मास्टर्स इन जर्नलिज्म एंड मास कम्यूनिकेशन्स करने के बाद अब बी.एड. की पढ़ाई कर रही हूं। बेटी भी अब पहली कक्षा में जाने लगी है। सासू मां ने घर पर खाली बैठने से बेहतर पढ़ाई में समय बिताने के लिए प्रोत्साहित किया तो उस आत्मनिर्भरता को समझ पा रही हूं जो उच्च शिक्षा के बाद हासिल होती है।’
आर्थिक लाभांश है शर्त
पिछले अट्ठाहर साल से विश्वरक्षा जम्मू विश्वविद्यालय के सोशियोलॉजी विभाग में जेंडर एंड सोसायटी विषय पढ़ा रहीं हैं। आज जब विवाहित युवतियों को पढ़ाई और परिवार दोनों में सामंजस्य बिठाती देखती हैं तो इस पीढ़ी को खुशकिस्मत बताती हैं। वह कहती हैं, ‘दुनिया बहुत अच्छी भले ही न हुई हो, लेकिन काफी कुछ तो बदला है। हर बदलाव के पीछे कुछ छिपे हुए कारण होते हैं। इस बदलाव का भी एक बड़ा कारण पैसे यानी प्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक संबल का बढ़ना है। खासतौर से मध्यमवर्गीय लोग यह समझने लगे हैं कि परिवार के आर्थिक उत्थान के लिए अच्छी नौकरी का होना बहुत जरूरी है और अच्छी नौकरी तभी मिलेगी जब उच्च शिक्षा होगी। इसलिए ज्यादातर परिवारों में अब न केवल शादी के बाद पढ़ने की आजादी है, बल्कि वे कहीं न कहीं घर की जिम्मेदारियों में भी सहयोग करते हैं। कुछ हद तक छूट भी दी जा रही है। अगर इसका उद्देश्य सिर्फ आर्थिक संबल है तो भी मैं कहूंगी कि स्थिति सिर्फ संतोषजनक है। इस पर गर्व नहीं किया जा सकता।
गर्व करने वाली स्थिति तब होगी जब लड़कियों को वह पढ़ने की अनुमति होगी, जो वे सचमुच पढ़ना चाहती हैं। अभी तक जितना भी सहयोग किया जा रहा है उसकी दौड़ सिर्फ नौकरी तक है। फिर भी मैं कहूंगी कि अगर नौकरी के बहाने से ही कुछ हासिल हो रहा है तो भी यह पीढ़ी काफी सौभाग्यशाली है। हमें शायद वह संघर्ष नहीं मिला, जो हमसे पहले वाली पीढ़ी को करना पड़ा। इसी के साथ यह उम्मीद भी की जा सकती है कि जो संघर्ष हम कर रहे हैं, वह हमारी आने वाली पीढ़ी को भी नहीं करना पड़ेगा। इसके लिए स्त्रियां एक-दूसरे को भरपूर सहयोग कर रही हैं। कहते हैं कि एक नारी पढ़ेगी तो सात पीढ़ियां तरेंगी। मैं इसके भी खिलाफ हूं। मैं चाहती हूं कि हर लड़की केवल अपने लिए पढ़े। अगर सात पीढ़ियों को तारने के लिए पढ़ना है तो परिवार के पुरुषों का भी उसमें सहयोग होना चाहिए। अभी तक जो सहयोग मिल रहा है उसमें आर्थिक लाभांश की शर्तें लागू हैं।’ -प्रो. विश्वरक्षा शर्मा, विभागाध्यक्ष, सोशियोलॉजी विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू
सपनों का अंत नहीं है शादी
मैं मुजफ्फरपुर (बिहार) से हूं। 1998 में जब दिल्ली आई तो मेरे पास ढेर सारे सपने थे। एमए कर चुकी थी और पीएचडी करना चाहती थी। लिखित परीक्षा दे चुकी थी, लेकिन अभी वाइवा होना बाकी था। मैं बोलते हुए बहुत असहज महसूस करती हूं, जबकि लिखकर देना हो तो बहुत कम समय में बड़े अच्छे से लिख लेती हूं। इसी वजह से मुझे लग रहा था कि मैं जो कर रही हूं, वह मेरे लिए नहीं है। पढ़ाना मेरे वश का नहीं है। तब मुझे और क्या करना चाहिए, यही सोचकर दिल्ली आ गई। आते ही यहां हंस में नौकरी मिल गई। तब लगा कि शायद लेखन ही मेरी अभिव्यक्ति का रास्ता है। हंस के अलावा भी कई और पत्र-पत्रिकाओं में खूब काम मिला। कई बार तो एक ही दिन में चार-चार लेख प्रकाशित होते थे, पर आर्थिक मजबूरियां तो थी हीं। हम लोगों ने मिलकर एक बड़ा सा फ्लैट किराए पर ले लिया था। उसमें सबका एक-एक कमरा था। कभी किसी का परिवार आता तो सब लोग मिलकर मैनेज करते। उधर घर से भी वापस लौटने का दबाव लगातार बना हुआ था। कभी झूठ ही बोल देती कि हां बहुत अच्छी नौकरी मिल गई है, अभी नहीं आ पाऊंगी। एक बार घर वालों ने झूठ बोलकर घर बुलवा लिया और मेरी शादी तय कर दी। तब ऐसा लगा कि जैसे मेरे सपनों का अंत हो जाएगा। तीन-चार दिन बहुत परेशान रही। उस समय मोबाइल भी नहीं हुआ करता था। पापा और भईया दोनों रेलवे में नौकरी करते थे। अगर निकलने की सोचती तो भी पकड़े जाने का डर था, कि कोई न कोई रेलवे कर्मी पहचान ही लेगा। मैं नहीं मानी और सहेली से मिलने का बहाना कर बस से ही पटना चली गई। तब वहां से घरवालों को सूचित किया कि मैं दिल्ली जा रही हूं। वह एक अलग संघर्ष का दौर था। आर्थिक मजबूरियां भी थीं, घरवालों का दबाव भी था, पर हार नहीं मानी।
राकेश से शादी हुई और उसके बाद एक बच्ची की मां भी बनी। दो उपन्यास और तीन कहानी संग्रह इन्हीं संघर्षपूर्ण दिनों की ही उपज हैं। अब तक यह अहसास हो चुका था कि शादी सपनों का अंत नहीं है। राकेश भी लगातार लिखने के लिए प्रेरित करते रहे। मध्य प्रदेश में उनकी पोस्टिंग ऐसी जगह थी जहां कोई सार्वजनिक वाहन भी नहीं मिलता था। कहीं भी जाना हो तो अपनी ही गाड़ी निकालनी पड़ती थी। मैं वहां बहुत असहज महसूस कर रही थी। मुझे लग रहा था कि आखिर दिनभर मैं यहां क्या करती रहती हूं। बस यही सोचकर वापस दिल्ली लौट आई। खुशकिस्मत हूं कि हम ऐसे दौर में हैं जहां स्त्री ही नहीं पुरुष भी बदल रहे हैं। शाम को जब मैं लाइब्रेरी जाती थी तो राकेश खाना भी बना लेते थे और बच्ची को भी संभाल लेते थे। पुरुष को भी पता है स्त्री के सपनों की कीमत। एक-एक कर दो नौकरियां मिलीं, फिर छूट भी गईं, लेकिन जीवट नहीं छूटा। ‘मेरा पता कोई और है’ और ‘ये दीए रात की जरूरत थे’ उपन्यास और ‘मेरी नाप के कपड़े’, ‘उलटबांसी’, ‘आवाजों वाली गली’ और ‘नदी जो अभी बहती है’ कहानी संग्रह आ चुके हैं, पर मुझे अपने लिए अभी बहुत कुछ करना है। अब भी मुझमें अपने सपनों को पूरा करने की ललक बाकी है। -कविता, युवा कथाकार, दिल्ली
-इनपुट: वंदना वालिया, जालंधर
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