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    पाठ्यक्रमों में बदलाव की है जरूरत

    कुछ वर्ष पहले एक खबर सुर्खियों में आई थी, जिसमें यह कहा गया था कि कॉलेज में पढ़ने वाले एक छात्र ने अपनी शिक्षिका का अपहरण किया और उसके साथ छेड़छाड़ करने लगा।

    By Rahul SharmaEdited By: Updated: Fri, 23 Sep 2016 09:29 AM (IST)

    कुछ वर्ष पहले एक खबर सुर्खियों में आई थी, जिसमें यह कहा गया था कि कॉलेज में पढ़ने वाले एक छात्र ने अपनी शिक्षिका का अपहरण किया और उसके साथ छेड़छाड़ करने लगा। अकस्मात उधर से पुलिस का गश्ती दल गुजरा तो वे बदमाश भाग खड़े हुए। शिक्षिका तो बच गई, लेकिन अंतत: उसने नौकरी ही नहीं बल्कि सपरिवार उस शहर को ही छोड़ा दिया। यह तो एक घटना मात्र है। आजकल ऐसी कितनी ही घटनाएं रोजाना देखने व सुनने में आती है।
    आखिर इस सब का कारण क्या है? हमारी भारतीय सभ्यता, हमारी संस्कृति, हमारी परंपराएं तो ऐसी नहीं रही है। हमारे यहां तो गुरु का स्थान ईश्वर से भी बढ़कर माना जाता रहा है। माता पिता, गुरुजनों तथा बड़ों के प्रति आदर भाव भारतीयता की पहचान रही है।
    इसके कारणों के विवेचन में जाएं तो प्रथमत: विद्यालयों का वर्तमान कालीन वातावरण प्रमुख कारण ठहरता है। आज से 25 -30 वर्ष पहले तक स्कूलों का वातावरण बिल्कुल भिन्न हुआ करता था। गुरुजनों के प्रति इतना आदर भाव तथा डर हुआ करता था कि छात्र अनुशासनहीन या अशिष्ट होने की कल्पना तक नहीं करते थे। भूल से अगर कर बैठे तो कठोरतम शारीरिक दंड तय होता था। उन दिनों कोई भी अभिभावक शिक्षकों के इस विशेषाधिकार को चुनौती नही देते थे। बल्कि घरवालों को पता चलने पर घर पर अलग से पिटाई होती थी। इसलिए अनुशासन भी था, अशिष्टता का नाम तक नहीं था, अनैतिक व्यवहार तो बहुत दूर की बात थी।
    आज की तरह शिक्षकों के हाथ बांध देने वाले कानून तब नहीं थे। आज तो जरा जरा सी बात पर पुलिस रिपोर्ट तथा कोर्ट कचहरी तक की नौबत आ जाती है। इसलिए शिक्षक भी अपना सरोकार बस सिलेबस पूरा करने तक सीमित रखने लगे हैं।
    दूसरा दोष हमारे पाठयक्रमों का है। पाठयक्रम में नैतिकता का स्तर उठाने वाले सामग्री पर फोकस नहीं होता है। सारा जोर बस किताबी ज्ञान, अंग्रेजी सिखाने और अधिकतम अंक प्राप्त करने पर रहता है। जब नैतिकता तथा संस्कार पाठयक्रमों की वरीयता है ही नहीं तो शिकायत किस बात की। 1जैसा कि सर्वविदित है कि परिवार संस्कारों की प्रथम पाठशाला हुआ करते हैं। संयुक्त परिवार के विघटन ने इस व्यवस्था को बुरी तरह गड़बड़ा दिया है। बढ़ते शहरीकरण के इस दौर में तथा व्यक्तिक स्वतंत्रता की बढ़ती चाह ने हमारी पुरातन संयुक्त परिवार की व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर दिया है। जहां बालक मां बाप तथा भाई बहन के साथ साथ दादा दादी, चाचा चाची, ताउ ताई आदि की देखरेख में रहा करते थे। अब बालक स्वयं को नितांत अकेले पाते हैं। विशेष रूप से जहां मां-बाप दोनों ही कार्यरत हैं वहां भौतिक सुख सुविधा के साधन तो हैं लेकिन बच्चों से बात करने वाला उन्हें रोकने टोकने वाला, उन्हें संभालने वाला कोई नही होता है।
    रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है। बढ़ते शहरीकरण का हाल यह है कि आज हम पड़ोसी को नाम से नहीं बल्कि उनके मकान के नंबर से जानते हैं। जैसे पांच नंबर वाले शर्मा जी, 26 नंबर वाले उत्पल जी आदि। दूर से ही नमस्ते तक सीमित होते जा रहे सामाजिक संबंधों के इस कठिन दौर में एक दूसरे का लिहाज, शर्म तथा डर कभी का समाप्त हो चुके हैं। 1अब इस सबका उपचार क्या हो इसपर बात करते हैं। सर्वप्रथम तो शिक्षा व्यवस्था के पाठयक्रम तथा नियमों में बदलाव की आवश्यकता है। शिक्षा को संस्कार तथा रोजगार दोनों उपलब्ध कराने में सक्षम होना ही चाहिए। तभी इधर उधर के बजाय बालक शिक्षा तथा संस्कारों पर ध्यान केंद्रित करेंगे, क्योंकि शिक्षा अगर रोजगार दिलाने में असक्षम है तो यह नई पीढ़ी को अपने साथ जोड़ नहीं पाएगी। वैसे भी बेरोजगारी नशाखोरी को तथा नशाखोरी अनाचार को आमंत्रण देती ही है।
    कड़े कानूनों का होना तथा पूरी निष्पक्षता तथा कठोरता के साथ इन्हें लागू करने की इच्छाशक्ति शासन- प्रशासन में होना भी इतना ही आवश्यक है। माता-पिता को भी समझना चाहिए कि हमारी वास्तविक संपत्ति हमारी पुत्र-पुत्रियां हैं। समस्त व्यस्तताओं तथा विवशताओं के बावजूद परिवार साथ उठने बैठने, कम से कम एक वक्त का भोजन इकट्ठे करना तथा पारस्परिक संवाद के अवसरों को हर हाल में बढ़ाया जाना चाहिए। अभिभावक के रूप में शिक्षक की भूमिका को स्वीकार करते हुए उसके अधिकार को समाज स्वीकार करे यह भी महत्वपूर्ण है। नि:संदेह इस दिशा में विविध सामाजिक संगठन, गैर सरकारी संस्थाओं को भी सतत प्रयत्नशील रहना होगा यही एक रास्ता है, जिसपर चलकर हम अपनी नई पीढ़ी को गर्त में जाने से रोककर समाज तथा देश को एक उज्जवल भविष्य देना सुनिश्चित कर सकते हैं।

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    अनिल शूर आजाद लेक्चरर, राजकीय सर्वोदय बाल विद्यालय विकासपुरी

    प्रभावकारी हैं नैतिक शिक्षा
    हमें स्कूल में किताबी ज्ञान के अलावा नैतिक शिक्षा भी दी जाती है। जिसमें बड़ों का आदर करना, झूठ नहीं बोलना, किसी का दिल नहीं दुखाना आदि बातें समझाई जाती है। अगर कभी शरारत भी करते हैं तो हमारे शिक्षक इसके लिए मना करते हैं तथा इसके परिणामों से अवगत कराते हैं।
    अमन सिंह, कक्षा-10

    बड़ों का आदर जरूर
    घर में सभी अपनों से बड़ों का आदर करते हैं और वहीं छोटे से प्यार करते हैं। हमारे अभिभावक भी हमें ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। वह कहते हैं कि, बड़ों का आदर करने से उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है और हमारी जिंदगी खुशहाल रहती है। मैं भी उनकी बातों का ध्यान रखता हूं।
    कपिल, कक्षा-9

    अनुशासन बड़ी जरूरत
    हमारे स्कूल में अनुशासन का बड़ा खयाल रखा जाता है। ऊंची आवाज में भी बात करने पर डांट लगाई जाती है। वहीं अपने से वरिष्ठ कक्षाओं के बच्चों के साथ आदर के साथ पेश आने को कहा जाता है। यह सब मेरे अच्छे के लिए ही है जिससे हमें आगे बढ़नेमें मदद मिलती है।
    सचिन, कक्षा-आठ

    अशिष्टता में ईष्र्या व द्वेष का होता है वास
    भारतीय संस्कृति की शुरुआत ही आदर भाव से होती है। जहां आदर नहीं होता वहां पर ईष्र्या, द्वेष व अनैतिकता का वास होता है। आजकल कुछ जगहों पर यह देखने को मिलता है कि छोटे अपने से बड़ों का आदर नहीं करते हैं। ऐसे व्यक्ति को समाज घृणा की दृष्टि से देखता है। हम अपनी सहजता व विनम्रता से ही दूसरों का दिल जीत सकते हैं। इस बात का ध्यान हर समय छात्रों को रखना चाहिए। आदर का भाव हमें अपने से बड़ों व छोटे दोनों के प्रति रखना चाहिए। इससे आपके प्रति दूसरों का लगाव बढ़ता है।
    विकास कुलश्रेष्ठ, पीजीटी, सवरेदय को-एड स्कूल पोसंगीपुर

    अच्छे संस्कार देना शिक्षक व परिजनों का दायित्व
    इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अशिष्टता से ही अनैतिकता आती है। बच्चों में जहां तक अच्छे संस्कार की बात है तो यह शिक्षकों के साथ-साथ परिजनों का भी दायित्व है। हमें अपने व्यवहार पर भी संयम रखने की जरूरत है क्योंकि जैसा हम व्यवहार करेंगे वैसा ही व्यवहार हमारे बच्चे करेंगे। खासकर घर में इस बात को ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। अगर हम बड़ों का आदर करेंगे तो सहज ही हमारे बच्चे भी इसको सीखेंगे और वे भी इसका अनुसरण करेंगे। 1अनिल देवलाल, वसुंधरा पब्लिक स्कूल,हस्तसाल

    माता-पिता को बच्चों के साथ समय बिताना जरूरी
    इस भागमभाग भरी जिंदगी में लोगों के पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है। ऐसे में बच्चे अकेला महसूस करने लगते हैं। धीरे-धीरे वे अपने माता-पिता से दूर होने लगते हैं। इस स्थिति में भी बच्चों में अशिष्टता आ सकती है क्योंकि उनके सवालों व जिज्ञासाओं का उत्तर देने वाला उनके साथ नहीं होता है। कुछ दिनों तक तो बच्चे बर्दाश्त करते हैं, लेकिन बाद में उनका व्यवहार काफी रुखा हो जाता है। ऐसी परिस्थिति न आए इस ओर माता-पिता को ध्यान देना चाहिए। दरअसल बच्चे स्कूल में महज कुछ ही घंटे रहते हैं। बाकी का समय वे घर में बिताते हैं।
    राकेश कुमार, एमआरवी स्कूल