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रटने नहीं समझने पर जोर

प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ-साथ नौकरी में भी समझ-बूझ की जरूरत लगातार बढ़ती जा रही है। कॉम्पिटिटिव एग्जामिनेशंस में जहां एनालिटिकल प्रश्नों की संख्या बढ़ रही है, वहीं कॉरपोरेट दुनिया में कद्र उसी की बढ़ रही है जो उत्साह के साथ पहल करने और चुनौतियों का सामना करने को तत्पर रहता

By Rajesh NiranjanEdited By: Published: Tue, 25 Aug 2015 11:52 PM (IST)Updated: Wed, 26 Aug 2015 02:45 AM (IST)
रटने नहीं समझने पर जोर

प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ-साथ नौकरी में भी समझ-बूझ की जरूरत लगातार बढ़ती जा रही है। कॉम्पिटिटिव एग्जामिनेशंस में जहां एनालिटिकल प्रश्नों की संख्या बढ़ रही है, वहीं कॉरपोरेट दुनिया में कद्र उसी की बढ़ रही है जो उत्साह के साथ पहल करने और चुनौतियों का सामना करने को तत्पर रहता है। ऐसे में जरूरी है कि किसी भी विषय को रटने की बजाय समझने पर ध्यान देकर अपने व्यावहारिक नजरिए को विकसित करें, ताकि किसी भी परिस्थिति में पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ सकें। क्यों जरूरी है इस तरह का पॉजिटिव एटीट्यूड, बता रहे हैं अरुण श्रीवास्तव...

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तपन कॉमर्स से ग्रेजुएशन करने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। वे ग्रेजुएशन के पहले साल से ही हर रोज दस से बारह घंटे पढ़ाई करते रहे हैं। न वह कभी घूमते दिखाई देते हैं और न ही खेल या मनोरंजन में टाइम वेस्ट करते। हर वक्त उनका कमरा बंद ही रहता है। उनके घर कोई मेहमान आता है, तो घरवाले तपन की पढ़ाई का हवाला देते हुए धीरे-धीरे बातें करते हैं और कोशिश यही करते हैं कि तपन को कोई भी डिस्टर्ब न करे। इतनी मेहनत करने के बावजूद वह आज तक किसी प्रतियोगी परीक्षा के आखिरी चरण तक नहीं पहुंच सके हैं। स्कूल और कॉलेज में उन्हें बहुत अच्छे मार्क्स नहीं मिल सके। इस पर उनके घरवालों को काफी ताज्जुब होता है, पर इसे सब नियति मान कर चुप हो जाते हैं।

दूसरा उदाहरण प्रीतम का है, जो सबको हर जगह मौजूद दिखता है। हंसता-मुस्कुराता-हर दम तरो-ताजा। वह क्रिकेट-फुटबाल-बैडमिंटन के मैदान में भी न सिर्फ सक्रिय दिखता है, बल्कि सटीक स्ट्रेटेजी बनाने और टीम को जीत दिलाने में भी सबसे आगे रहता है। हैरानी की बात यह है कि पढ़ाई पर औसतन चार-पांच घंटे देने के बावजूद वह हर क्लास में अव्वल रहता रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह कि ग्रेजुएशन के तुरंत बाद वह सिविल सेवा परीक्षा में अपीयर हुआ और पहले ही प्रयास में प्रारंभिक, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार को क्वालिफाई करके आइएएस के लिए चुन लिया गया।

कॉन्सेप्ट की समझ

ऊपर के ये दोनों उदाहरण बहुत कॉमन हैं। हमारे आस-पास दोनों तरह के स्टूडेंट मिल जाएंगे। इन दोनों की तुलना करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है, पढ़ाई के नाम पर 12-14 घंटे खर्च करना एक तरह से खुद को ही धोखे में रखना है। खेल-कूद, मनोरंजन से वंचित रहकर खुद को किताबों के बीच कैद कर लेने से अपने विजन का विस्तार नहीं कर सकते। हां, बार-बार एक ही ही चीज को दोहराकर आप उसे रट तो सकते हैं, लेकिन इससे आप अपनी नॉलेज और पर्सनैलिटी की ग्रूमिंग कतई नहीं करा सकते। यह हमारा भ्रम है कि किसी एग्जाम में कामयाबी के लिए 12-14 घंटे पढ़ना जरूरी है।

टॉपर्स के संदेश

आज आप किसी भी एग्जाम या कॉम्पिटिशन के टॉपर से बात करें, तो वह यही कहेगा कि उसने से पांच-सात घंटे से ज्यादा कभी पढ़ाई ही नहीं की। हां, यह जरूर है कि जो भी पढ़ा, उसके लिए खुद को तरो-ताजा रखा। इतना ही नहीं, उसने घंटों पन्ने पलटने की बजाय फ्रेश माइंड से जो भी पढ़ा, उसे समझने का पूरा प्रयास किया। उसके पीछे के कॉन्सेप्ट को समझा। ज्यादा से ज्यादा पन्ने पलटने और रटने की बजाय समझने की कोशिश के चलते ही उनका कॉन्सेप्ट क्लियर हो सका और वे एग्जाम में उससे संबंधित उत्तर लिखते समय या इंटरव्यू में सवालों के जवाब देते समय सहजता के साथ अपनी बात रख सके।

पढ़ाई का मकसद

स्कूल-कॉलेज में पढ़ने का मकसद सिर्फ एग्जाम पास करना और डिग्री लेना नहीं होता। हालांकि भारतीय समाज में गार्जियंस और स्टूडेंट्स के बीच अभी तक सामान्य धारणा यही रही है। यही कारण है किताबी बातों का हमारे व्यावहारिक जीवन में कोई उपयोग नहीं हो पाता। हमारे स्टूडेंट्स भी हर साल दर्जनों किताबें इसलिए पढ़ते हैं, ताकि एग्जाम में ज्यादा से ज्यादा अंक लाए जा सकें। अध्यापकों का जोर भी इसी बात पर ज्यादा रहता है कि किसी तरह से कोर्स कंपलीट हो जाए। इसके लिए अक्सर एक्स्ट्रा क्लासेज भी लगाए जाते हैं। टीचर, स्टूडेंट या गार्जियन इन तीनों में से किसी का जोर इस बात पर नहीं होता कि स्टूडेंट के विजन को डेवलप किया जाए। इसीलिए किताबों को रटाने की परंपरा सालों-साल से चली आ रही है।

इनोवेटिव बनाएं

एजुकेशन रट्टू तोता बनाने के लिए नहीं, बल्कि एक समझदार, कामयाब और संवेदनशील इंसान बनाने की लिए दी जानी चाहिए। यह विडंबना ही है कि ज्यादातर स्कूल और अध्यापक इस जड़ता से उबर नहीं पाते। यह शुरुआत प्राथमिक स्कूलों से होनी चाहिए। गणित, विज्ञान या कोई भी विषय रोचक तरीके से उदाहरणों के जरिए समझाने से बच्चों को बोरियत नहीं होगी और उनकी जिज्ञासा बढ़ेगी। इसी तरह हायर क्लासेज में भी मोटी-मोटी किताबों को रटने पर जोर देने की बजाय प्रैक्टिकल के साथ धारणात्मक ज्ञान पर जोर दिया जाना चाहिए।

समझदारी बढ़ाएं

गार्जियंस और टीचर्स दोनों को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए स्टूडेंट्स की ओवरऑल ग्रूमिंग पर ध्यान देना चाहिए। कोशिश यह करें कि बचपन से ही बच्चे की मौलिक सोच को बढ़ावा मिले। वह किसी लकीर पर चलने की बजाय नई-नई चीजों को सीखने के लिए उत्सुक बने।

नौकरी में अलग पहचान

अगर आप कहीं नौकरी करने जा रहे हैं या कर रहे हैं, तो विपरीत परिस्थितियों से कभी विचलित न हों। अपने काम में भरपूर रुचि लें। इनोवेटिव अप्रोच रखें। आवश्कतानुसार खुद को अपडेट करते रहें। टाइम पास करने की बजाय अपने काम को स्मार्ट और परफेक्ट तरीके से करने से आपकी छवि बेहतर होगी। काम न करने और टाइम पास करने वालों से अपनी तुलना न करें। पहल करके काम करेंगे, तो हमेशा

आगे बढ़ेंगे।

* पढ़ाई करते समय ज्यादा से ज्यादा पन्नों को पलटने की बजाय जो भी पढ़ें, उसे अच्छी तरह समझने का प्रयास करें।

* यह जरूरी नहीं कि पढ़ाई में ज्यादा घंटे लगाकर ही आप अच्छा परिणाम हासिल कर सकते हैं।

* खुद को फ्रेश रखने के लिए एंटरटेनमेंट और स्पोट्र्स के लिए भी समय निकालें।

* किसी भी विषय या थीम को रटने की बजाय उसे समझने का प्रयास करें, ताकि वह आपके दिलो-दिमाग में बैठ जाए और आप उसके बारे में किसी भी सवाल का सहजता से जवाब दे सकें।

क्षमता बढ़ा कर भगाएं डर


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