शीर्ष 10 नई उम्मीदें
कभी हंसाने तो कभी रुलाने वाला साल 2012 विदा ले चुका है। बीते साल के सेलुलाइड पर दिखे राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के कुछ रंग फीके पड़ चुके हैं तो कुछ रंग ऐसे भी हैं जिनमें अभी भी जान बाकी है नए साल को रंगीन करने के लिए। ऐसे में बात करें साल 2012 की, तो हमारे सामने कई?ऐसी चुनौतियां हैं?जिनके जवाब हमें 2013 में ढं़ूढने होंगे। साल के इस पहले अंक में हम इन्हीं चुनौतियों और उनके जवाबों की पड़ताल करेंगे। कोशिश होगी देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में घटी मुख्तलिफ किस्म की घटनाओं में छिपे आने वाले कल की खूबसूरती ढू़ंढने की..
कहते हैं कुदरत दुनिया में हर आदमी का काम तय करके रखती है। हमें क्या करना, कब कैसे करना है सब उसके ही इशारों पर होता है। नहीं तो ऐसे कैसे होता कि लाखों लोगों की होड के बीच बनारस का एक अनपढ साजकार लकडी के वाद्य में फूंक क्या मारता है कि वह पूरे देश का लाडला भारत रत्न उस्ताद बिसमिल्लाह खां बन जाता है। करोडों की भीड में एक 16 साल का लडका पाकिस्तानीस्पिनर अब्दुल कादिर की आंख में आंख डालकर देखने की जुर्रत करता है और रातों रात देश का सितारा लिटिल मास्टर सचिन तेंदुलकर बन जाता है या फिर आवाजों के जंगल में 1942 में एक आवाज उभरती है और पूरी दुनिया उसकी कायल आवाज को नाम देती है स्वर कोकिला लता मंगेशकर। दरअसल दुनिया भर में होने वाली तमाम युग परिवर्तनकारी घटनाओं के पीछे ऐसे ही शख्सों का हाथ होता है। यहां हम 2013 को उम्मीदों का साल बनाने की काबिलियत रखने वाले ऐसे लोगों की चर्चा करेंगे..
देश- बनती उम्मीद
बीते से लें सबक
किसी दार्शनिक ने सही ही कहा है कि यदि आप दौडते वक्त पिछली बार गिरे थे तो इस बार संतुलन को बेहतर करें, लेकिन गिरने का डर न पालें, न ही उसकी शर्मिदगी से खुद को कमतर महसूस करें, वहीं यदि आप दौडते वक्त नहीं गिरे थे तो उसका इतना गुमान न पालें कि एहतियात ही गायब हो जाए और आप औंधे मुंह गिरें। सफलता के लिए सम्यक रहना बहुत जरूरी है। 2012 में मिली सफलता-असफलता अपनी जगह है लेकिन उन असफलताओं से सीखते हुए नए साल का नया सृजन उससे भी अहम है। घरेलू मैदान में इस बार देश के खाते में कई उपलब्धियां दर्ज हुई तो कई तोहमतें भी लगीें। ये चीजें हमें किस ओर ले जाएंगी, एक देश के रूप में हमें कहां स्थापित करेंगी? इसके सकारात्मक जवाब 2013 की बेहतरी में छिपे हैं।
-मोदी के मायने
साल जाते जाते गुजरात में मोदी नाम की सुनामी एक बार फिर छाई और इसमें डूब गए तमाम कयास व आकलन। देश के नजरिए से देखें तो गुजरात में नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के कई मतलब हैं- कोई इसे भगवा कटट्रवाद की वापसी कह रहा है तो कोई इसमें विकास की राजनीति के चिह्न ढूंढ रहा है। लेकिन एक बात तो तय है कि यह जीत आने वाले समय में तमाम बनते बिगडते राजनीतिक समीकरणों का श्रीगणेश कर चुके है। इसी दौरान हिमाचल प्रदेश में हुए विस चुनाव भी चर्चा में रहे जहां जनता ने भ्रष्टाचार, केंद्र में यूपीए की निष्क्रियता को परे रखते हुए कांग्रेस के पक्ष में जनादेश दिया। ऐसे में लोकसभा चुनावों का क्वार्टर फाइनल कहे जा रहे इन चुनावों का केंद्र की राजनीति पर क्या असर पडेगा, देखना मौजूं होगा।
-क्या छटेंगे दामन में लगे भ्रष्टाचार के दाग
बीता साल संप्रग सरकार के लिए बदनामियों भरा साल रहा। एक के बाद एक भ्रष्टाचार के आरोप, कैग की रिपोर्ट, निर्णय के स्तर पर सरकारी उदासीनता आदि सरकार के लिए बडी परेशानी बने रहे। वहीं रही सही कसर विपक्ष की घेराबंदी, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के धारदार तेवरों ने पूरी कर दी। इन सबके बरक्स देखें तो 2013 सरकार के लिए कतई आसान नहीं रहने वाला। भ्रष्टाचार नियंत्रण के साथ देश के विकास की गाडी पटरी पर लाना उसके मुख्य मिशन होंगे।
- आंतरिक सुरक्षा होगा बडा मुद्दा
भारत की अखंडता के सामने आज आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न दोधारी तलवार की तरह है, जिसके तहत देश को निर्दोषों की सुरक्षा के साथ देश में ही छिपे गददरों का सफाया भी सुनिश्चित करना है। कई बार इस फेर में मासूमों के हत्थे चढ जाने के चलते सरकार विरोधी भावनाएं उबाल मारने लगती हैं और सरकार इस दोहरी धार का शिकार हो जाती है। बात चाहें नक्सली ¨हसा की हो या धार्मिक चरमपंथ की, हर जगह सरकार को ऐसे ही धार से मोर्चा लेना है। इस बाबत आतंरिक सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से आने वाला साल देश के लिए नए व्यूह प्रस्तुत करेगा। पुलिस बलों/अर्धसैनिक दस्तों का आधुनिकीकरण, बेहतर संसाधन, उपयुक्त रणनीति, योग्य नेतृत्व, त्वरित निर्णय, लाल फीताशाही से मुक्ति, राजनीतिक पूर्वाग्रह के बगैर लिए गए फैसले इसे तोडने में सहायक बन सकते हैं।
-आधी आबादी की सुरक्षा है बडा सवाल
भारत जैसे देश में जहां महिलाओं को देवी मान पूजने की परंपरा रही है वहां महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों के हालिया आंकडे शर्म का विषय हैं। देश के दूरदराज के इलाकों को तो छोडिए हाल में सभ्य समाज के चेहरे पर कालिख मलने वाली एक घटना बताती है कि अब राजधानी दिल्ली में पुलिस, प्रशासन के नाक के नीचे भी महिलाओं/बालिकाओं की अस्मत सुरक्षित नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी कितनी और घटनाओं के बाद सरकार चेतेगी, उसे आखिर कब अपनी बच्चियों की सुरक्षा का होश आएगा। केवल यौन अपराध ही नहीं महिलाओं के साथ होने वाले अन्य अपराधों के प्रति भी सरकार को अब कडे कदम लेने होंगे। 2013 में यदि सरकार इस संबंध में एक कडा कानून ला सकी, कानूनी उलझनों से बचते हुए दोषियों को उनके अंजाम तक पहुंचा नजीर पेश कर सकी तो एक बडी उपलब्धि होगी।
खेल- प्रयास से सफलता
कोशिश को बनाओ आदत
मैं असफलता को स्वीकार कर सकता हूं? हर कोई कभी न कभी असफल जरूर होता है, लेकिन मैं कोशिश करना नहीं छोड सकता। क्योंकि एक हार की वजह से कोशिश छोड देने से भविष्य में भी जीतने के रास्ते बंद हो जाते हैं।
माइकेल जॉर्डन
भारतीय खेलों की तरफ बीते साल नजर डालें और भविष्य की संभावनाओं को टटोलें तो बस माइकेल जॉर्डन के कहे यही शब्द गूंजते हैं। हार-जीत से परे लगातार कोशिश, हर बार खुद को बेहतर बनाते हुए, अगले मुकाबले के लिए पुख्ता तैयारी का संकल्प ही नए साल में भारतीय खेलों के सशक्तीकरण के सवाल का हल बन सकता है। ऐसे में हमारी कोशिश साल भर हुई?मुख्य खेल गतिविधियों पर रोशनी डालते हुए उनसे रोशन होते भविष्य की जमीन तलाशना है-
- क्रिकेट: करनी होगी नई शुरुआत
क्रिके ट भारतीयों के लिए धर्म है और खिलाडी उसके देवता। लेकिन बदतर परफॉर्मेस इस खेल और इसके खिलाडियों को प्रशसंकों की नजर में कहां पहुंचा सकते हैं पिछली श्रृंखलाओं में मिली करारी हारों से साबित हो गया। देखा जाए तो किकेट के लिए 2012 भूल जाने लायक है।
ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैड से टेस्ट में हार, टी-20 वर्ल्ड कप में मिली मात ने इस साल प्रशंसकों का बार-बार दिल तोडा। इसके बाद टीम, कप्तानी में बदलाव जैसी आवाजें भी उठीं। लेकिन यहां याद दिलाना जरूरी होगा कि यह वहीं टीम है जिसने देश को वर्ल्ड?कप जीत समेत कई यादगार लम्हें भी दिए हैं। इसलिए हमें उम्मीद करनी होगी कि नए साल में टीम अपनी पुरानी गलतियों से सबक लेते हुए एक बार फिर देश को जश्न का मौका देगी। आने वाली ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान के साथ घरेलू श्रृंखलाओं को देखते हुए यह उम्मीद करना और महत्वपूर्ण हो जाता है।
- हॉकी: लीग से मिलेंगी नई सांसें
आईपीएल की तर्ज पर हॉकी की भी अपनी लीग शुरू होने जा रही है। हॉकी इंडिया लीग के नाम से नए साल के पहले महीने में चालू होने वाली इस प्रोफेशनल, फ्रेंचाइजी बेस्ड लीग में भारत केसाथ विदेशी धुंरधर भी अपनी हॉकी का जादू बिखेरेंगे। जानकारों की राय है कि इस प्रयास से खेल में पैसा आएगा जिससे युवा हॉकी की ओर रुझान करेंगे। वहीं विदेशी खिलाडियों की संगत, दर्शकों, इंफ्र ास्ट्रक्चर की बेहतरी भी देश की हॉकी का भला करने मे सहायक होगी। खर अभी उम्मीदें तो बहुत हैं पर क्या ये उम्मीदें सही मायने में परवान चढेंगी उसके लिए तो एचआईएल का इंतजार करना होगा।
- देखना होगा युवाओं का दम
यूं तो अलग-अलग खेलों में कई प्रतिभाओं ने बीते साल अपना हुनर दिखाया। लेकिन क्या 2013 में भी ये खिलाडी देश को ऐसे ही सम्मान दिलाते रहेंगे, नजर रखनी होगी। इन खिलाडियों में जहां क्रिकेट में चेतेश्वर पुजारा, आर आश्विन, उन्मुक्त चंद, भुवनेश्वर कुमार जैसे खिलाडियों पर प्रशंसकों की खास निगाहें होंगी। वहीं टेनिस में बोपन्ना,स्क्वैश में दीपिका पल्लीकल, तीरंदाजी में दीपिका कुमारी, मुक्केबाजी में मेरीकॉम, बैडमिंटन में सायना, पी.कश्यप, पी वी संधू, एथलेटिक्स में कृष्णा पूनिया से भी कम आस नहीं हैं।
- खेल संस्कृति बन सकेगी हकीकत
करीब-करीब हर ओलंपिक के बाद हमारे पदकों का तुलनात्मक अध्ययन शुरू हो जाता है। बराबरी की जाती है जर्मनी, ब्रिटेन, हंगरी, क्यूबा, त्रिनिदाद, रोमानिया, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से। और सवाल उठाए जाते हैं कि आखिर कैसे हमसे छोटे, कहीं कम जनसंख्या वाले देश इतने ज्यादा पदक जीत रहे हैं? दरअसल इसका जवाब मिलेगा इन देशों में दसियों साल में पल रही विशिष्ट खेल संस्कृति से। हालांकि बीजिंग ओलंपिक से तुलना करें तो हमारा प्रदर्शन सुधरा है?लेकिन अभी भी पदक सूची में शीर्ष 10 या 15 में आने के लिए हमें देश में ऐसी ही संस्कृति विकसित करनी होगी। जिसका प्रारंभ स्कूल स्तर पर खेलों की अनिवार्यता, खेल की आधारभूत सुविधाएं, निचले स्तर/गांवों में खेल ढंाचा, खेलों के लिए परिवार, स्कूल से प्रोत्साहन व सरकार की ओर से मिलने वाली वित्तीय सुविधाओं के जरिए किया जा सकता है।
मनोरंजन- बात कल की
सुनहरा होगा 2013
ख्वाब तो आपने भी देखें होंगे लेकिन जागती आंखों से ख्वाब..ये ख्वाब तो सेलुलाइड के पर्दे पर ही देखे जा सकते हैं वह भी पूरी आंख खोलकर, पूरे होशों हवाश में । इस पूरे साल हम ऐसे ही हसीन ख्वाबों के गवाह बने.
मनोरंजन की बात करें तो पहली चीज उभरती हैं फिल्में। इस कसौटी पर परखें तो बीते साल देश में एक से बढकर एक उम्दा फिल्में रिलीज हुईं। कईयों ने 100 करोड का जादुई आंकडा छुआ तो कई फिल्में कला और सिनेमाई समझ के लिए सराही गई। बनिस्पत 2011 इस साल भारतीय फिल्मों ने विदेशों में तेजी से अपने पांव फै लाए तो छोटे शहरों ने भी मल्टीप्लेक्स कल्चर से अपने को जोडा।
- बढी कमाई से बडी आस
कुछ साल पहले कोई फिल्म सौ करोड की कमाई कर लेती थीं तो यह अभूतपूर्व होता था लेकिन बीते साल यह ट्रेंड टूट गया। इस साल राउडी राठौर, एक था टाइगर, बर्फी, बोल बच्चन, सन ऑफ सरदार ने बॉक्स आफिस पर रिकॉर्ड कमाई की। माना जा सकता है कि जिस तरह इस साल बडे स्टार कास्ट वाली बडी बजट वाली फिल्में रिलीज होने को हैं अब इंडस्ट्री 100 नहीं बल्कि 200 करोड के फिगर की ओर नजरें गडाएगी।
- बर्फी बनेगी भविष्य की गाइड लाइन
इस साल फिल्म बर्फी को ऑस्कर में भारत की आधिकारिक इंट्री के तौर पर मान्यता मिली। एक गूंगे बहरे जिंदादिल लडके मर्फी के किरदार में ढली इस फिल्म ने कला और व्यवसायदोनों नजरियों से लोगों की खूब तालियां बटोरीं। भले ही फिल्म ऑस्कर पुरस्कारों की दौड से बाहर हो गई, लेकिन इसका कथ्य फिल्म को भारतीय सिनेमा में आई यादगार फिल्मों में जरूर खडा करता है।
- नई प्रतिभाओं को मिलेगी ऊंचाइयां
इस साल जहां एक ओर व्यावसायिक फिल्मों ने धूम मचाई तो विशुद्ध कथानक पर आधारित फिल्मों ने भी दर्शकों के दिलों में जगह बनाई। इन फिल्मों में गैंग्स ऑफ वासेपुर, पान सिंह तोमर, विक्की डोनर तलाश, कहानी खास रहीं।
अंतर्राष्ट्रीय - परिवर्तन का दौर
उम्मीद और चुनौतियां
-क्या ओबामा बदलेंगे सूरत
अमेरिकीराष्ट्रपति का दायरा यदि अमेरिका तक ही रहता तो शायद दुनिया ओबामा की दोबारा ताजपोशी पर इतना बेकरार न होती। लेकिन ये तो उसकी ताकत, दुनिया का नक्शा पलट देने की उसकी क्षमताएं हैं कि तमाम देश उसकी सत्ता के रास्ते अपने सपनों की तामील करते दिखते हैं। बीते साल अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबाम के दोबारा सत्तासीन होने की घटना ने इसी तरह का दृश्य उपस्थित किया। लेकिन अमेरिका का राष्ट्रपति होने के नाते उनकी लडाई केवल व्हाइट हाउस की चुनावी जद्दोजहद पर खत्म नहीं हो जाती। असल में उनकी लडाई तो दुनिया की सूरत बदलने की है।
- मिस्त्र में मुर्सी से जंग
मोहम्मद मुर्सी को 2012 में मिश्च की तकदीर बदलने को लाया गया?था। लेकिन मुर्सी को भी नहीं पता था कि 30 साल से सत्ता पर चिपके हुस्नी मुबारक के खिलाफ जनता का आक्रोश कोई इत्तेफाक नहीं था। इसकी एक झलक के गवाह आज वे खुद बन रहे हैं। संविधान में संशोधन करने की उनकी कवायद आज जनता की कसौटी पर परखी जा रही है और एक बार फिर तहरीर चौक कुछ नए की आस लगाए बैठा है।
- उम्मीदों की लहर पर सूकी
बहुत कम ऐसे नेता होंगे जो आम लोगों में आशाओं का संचार करते हों। आंग सांग सूकी ऐसी ही नेता हैं। अपनी जिंदगी का बडा हिस्सा नजरबंदी में काटने वाली सूकी सैन्य शासकों से सुधरे रिश्तों के हालिया दौर में इस समय पूरी दुनिया का भ्रमण कर रही हैं। मई 2012 में अपनी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी के चुनावों में बेहतर प्रदर्शन व खुद देश के संसद के निचले सदन में बतौर प्रतिनिधि बन उन्होंने दुनिया के सामने साहस और संघर्ष की नई इबारत लिखी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोकतंत्र की अलख जगाने वाली सूकी 2013 में भी मानवीय मान्यताओं के लिए हौसले का सबब बनेगी।
-जापान में शिंजो एबे के सहारे बढेगा कारवां एक समय जापान को दुनिया की सबसे तेज इकोनॉमी, तकनीक का महारथी, सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय, एशियाई शेर जैसे तमाम तमगों से नवाजा जाता था। लेकिन आज ऐसी स्थिति नहीं है। बढी बेरोजगारी, घटती जीडीपी, देश में उम्रदराज लोगों की बढती संख्या, कम होती औद्योगिक उत्पाद दर ने आज के जापान क चमकीले अतीत के सामने कई सवाल खडे कर दिए हैं। ऐसे विपरीत माहौल में शिंजो एबे की प्रधानमंत्री के तौर पर ताजपोशी देश को एक और मौका दे रही है अपने गौरव की वापसी के लिए।
अर्थव्यवस्था - काम का हुनर
करनी होगी नई शुरुआत
काम करने का हुनर आ जाए तो राहें हमें सलाम करती हैं। तब जिंदगी बोझा नहीं बल्कि रुई का फाहा लगने लगती है।
आज भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में यही हुनर बडे काम का साबित हो रहा है। बडी आबादी, तकनीकी रूप से सक्षम लोग, विशाल संसाधन, सरकारी नीतियां आदि अर्थव्यवस्था की जमीन पर सोना उपजा सकती हैं। लेकिन बीते कुछ सालों के इस ट्रेंड को देखें तो इस मायने में 2012 बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता। घोटाले पर घोटाले, घोटालों के चलते अर्थव्यवस्था में आई शिथिलता, सरकारी निर्णयों की मंद चाल, वैश्विक मंदी इत्यादि ने इस दौरान अर्थव्यवस्था की गति को कमजोर किया। लेकिन आनेवाला कल बेहतरीन होगा ऐसी उम्मीदें की जा सकती हैं।
-क्या मंजिल तक पहुंचेगी एफडीआई
एफडीआई मसले पर राजनीतिक सुडोकू से पार पा चुकी सरकार के सामने इस मसले पर परेशानियां खत्म नहीं हुई। अभी भी जमीनी स्तर पर एफडीआई पर सरकार को कई निर्णय लेने हैं, जिसमें आधारभूत ढंाचे का विकास, किसानों की सहमति,राज्यों की रजामंदी जैसी चीजें बडा मायने रखती हैं। वहीं एफडीआई के प्रभाव, दुष्प्रभाव, बैकप्लान के बारे में भी सरकार को सचेत रहना होगा। अब गौर करना होगा कि क्या एफडीआई नए साल में देश को सौगातों का पिटारा बख्शता है या नहीं। रोजगार का अंबार-माना जा रहा है आने वाले साल में अलग-अलग विभागों में बडेे पैमाने पर भर्तियां निकलेंगी। जिसमें शिक्षा, बैंक, पुलिस, रेलवे, मेडिकल पर बडा दांव होगा। बस दरकार होगी थोडी मेहनत, थोडे समर्पण की।
जेआरसी टीम
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