अब्बा की कब्र से रोज गुजरती हैं ये बदनसीब बेटियां
आग और जमीन धंसने से प्रभावित झरिया का उजड़ना उसकी नियति बन गया है।
भारतीय बसंत कुमार, धनबाद। देश की कोलनगरी झरिया सौ साल से धधक रही है। 1916 में पहली बार यहां की खदान में आग दिखी थी और यह दावानल की तरह बड़े हिस्से में पसरती गई। अब तक इस आग को रोकने की ईमानदार कोशिश नहीं हुई। चांद पर घर बसाने वाली दुनिया में क्या इतना शऊर नहीं कि हमारी दुनिया बचा सके? एक शहर धरती में समा रहा है, ढाई सौ साल पुरानी निशानियां ध्वस्त होने वाली हैं। सवाल लोगों के पुनर्वास के भी हैं। यहां के लोगों के अपनी जमीन से उखड़ने के संघर्ष और एक नई दुनिया में जीने की संभावना की पड़ताल पर ‘झरिया की त्रसदी’ सीरीज की पेश है पहली किस्त:
24 मई, 2017 को झरिया के इंदिरा चौक पर धधकती आग से बने गड्ढे में बबलू खान बेटे सहित समा गए। उनकी तीन बदनसीब बेटियां सना परवीन, सूफी परवीन, साहिबा परवीन रोज उसी रास्ते से स्कूल जाती हैं और रोज ही रोती हैं। अपनी नियति पर, अपनी बदनसीबी और बेबसी पर। यह कोई एक परिवार का गम नही है, सौ साल से लगी आग ने सैकड़ों परिवारों को इसी तरह की गमशुदा जिंदगी जीने को अभिशप्त कर रखा है। आग और जमीन धंसने से प्रभावित झरिया का उजड़ना उसकी नियति बन गया है।
करीब 250 साल पहले बसा झरिया चारों ओर से कट रहा है। धनबाद से झरिया को जोड़ने वाली धनसार की मुख्य सड़क की जिंदगी पर बन आई है। इसी सड़क के उस पार किनारे पर बने झरिया के आरएसपी कॉलेज और स्कूल को खाली कराने का नोटिस जारी किया जा चुका है। एक बड़ी आबादी है जो बेफिक्र है। कहती है जब से जन्मे तब से यह खौफ कायम है। झरिया जैसे आज तक बचता आया है, वैसे ही आगे भी बचता रहेगा। लोग कहते हैं, हमें बदले में जो मकान दिया जा रहा है वह बहुत छोटा है। हम यहीं ठीक हैं।
यहां कम से कम कमाने को मिल जाता है। बेलगड़िया (वह जगह जहां पुनर्वासित किया जाना है) जाकर खाएंगे क्या? यहां के लोग अजीब द्वंद्व से जूझ रहे हैं। उन्हें भविष्य की चिंता भी है और अपने पुरखों की जड़ों, उनकी यादों को छोड़ना भी नहीं चाहते। पीड़ित परिवारों की एक ही व्यथा है। क्या होगा भविष्य? हर चेहरे में अपने रहनुमा को ढूंढ रही इन कातर आंखों में एक ही सवाल है। साहब, आप लोग ही आसरा हैं। कुछ करिए हमारे खातिर.।
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