करदाताओं पर महंगाई का शिकंजा
पिछले सप्ताह वित्त मंत्रालय ने प्रस्तावित प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) का एक और मसौदा जारी किया है। यह मसौदा जारी करने की अहमियत ज्यादा नहीं है, लेकिन इसमें किए गए कुछ बदलाव रोचक हैं। मसौदे में संसद की स्थायी समिति की ओर से दिए गए सुझावों में से कुछ शामिल किए गए हैं और कुछ को ख
पिछले सप्ताह वित्त मंत्रालय ने प्रस्तावित प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) का एक और मसौदा जारी किया है। यह मसौदा जारी करने की अहमियत ज्यादा नहीं है, लेकिन इसमें किए गए कुछ बदलाव रोचक हैं। मसौदे में संसद की स्थायी समिति की ओर से दिए गए सुझावों में से कुछ शामिल किए गए हैं और कुछ को खारिज किया गया है।
आयकर छूट की सीमा को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) से जोड़ने के सुझाव को खारिज किया गया है। ऐसे समय में जब यह महंगाई 10 फीसद के स्तर पर बनी हुई है, तब छूट सीमा में बदलाव नहीं करना भी वास्तविक खरीद क्षमता के आधार पर इसे कम करने जैसा है। दो लाख की कीमत में पिछले साल जो कुछ खरीदा जा सकता था, वह अब नहीं। इसलिए छूट सीमा समान क्यों रहनी चाहिए।
इसे खारिज करते हुए वित्त मंत्रालय ने कहा है कि छूट सीमा को सीपीआइ से जोड़ना व्यावहारिक नहीं है। पहला, यह स्पष्ट नहीं है कि सीपीआइ ही आधार क्यों होना चाहिए, थोक मूल्य इंडेक्स (डब्ल्यूपीआइ) क्यों नहीं। बेस इंडेक्स या कमोडिटी बास्केट में बदलाव होने पर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। दूसरा, ऐसा करने पर बदलाव पूर्णाकों में नहीं होगा। तीसरा, यह व्यापक सोच नहीं होगी, क्योंकि स्लैब स्ट्रक्चर करदाताओं को दी जाने वाली विभिन्न राहतों, सरकार को होने वाले संभावित राजस्व नुकसान व करदाताओं की संख्या जैसे कारकों पर निर्भर करता है।
यह कारण सिद्धांत पर आधारित नहीं, बल्कि क्रियान्वयन क्षमता के आधार पर दिए गए हैं। यह बताने का प्रयास किया गया है कि मांग सही होनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय इतने बेवकूफ हैं कि वे केवल पूर्णाकों में ही गणना कर सकते हैं व डब्ल्यूपीआइ और सीपीआइ में से किसी का चयन करना असंभव है। साथ ही, ये इंडेक्स बदलते रहेंगे। पूर्णाकों व इंडेक्स चयन की समस्या को कॉस्ट इंफ्लेशन इंडेक्स के चयन से दूर किया जा सकता है। आयकर विभाग हर साल पूंजीगत लाभ आकलन के लिए यह इंडेक्स जारी करता है। इंडेक्स ऐसी गणनाओं के लिए पहले से उपलब्ध है। छूट सीमा को इंडेक्स से इसलिए नहीं जोड़ा जा रहा, ताकि वित्त मंत्रियों को बजट भाषण में आयकर स्लैब बढ़ाने की घोषणाओं पर वाहवाही मिल सके। स्लैब में बदलाव वोट बैंक को ध्यान में रखकर किए जाते हैं न कि नियमित व तार्किक आधार पर।
आयकर स्लैब की एक सीमा में पिछले एक दशक से बदलाव नहीं हुआ है और वह है टैक्स बचत योजनाओं में एक लाख रुपये तक के निवेश की सीमा। 2005 में जब यह तय की गई थी, तब से महंगाई के कारण इसका वास्तविक स्तर 47,000 रुपये रह गया है। टैक्स सेविंग निवेश के वास्तविक स्तर में कमी लोगों की बचत आदतों पर बुरा असर डालती है। इस मुश्किल समय में मध्यवर्ग के ज्यादातर नौकरीपेशा लोग अपनी बचत इसी एक लाख रुपये की सीमा में कर रहे हैं। लंबे समय से इसमें बदलाव न करके वित्त मंत्रियों ने असल में टैक्स में वृद्धि व बचत में कमी की है।
इसका कोई कारण नहीं है कि टैक्स विभाग कॉस्ट इंफ्लेशन इंडेक्स के आधार पर हर साल सभी टैक्स स्लैब में स्वत: बदलाव न करे। टैक्स दरें प्रतिशत में तय की जाती हैं, न कि निश्चित रकम के रूप में। इसके कारण सरकार को जो रकम मिलती है, वह पहले ही महंगाई के अनुरूप बढ़ी हुई होती है। इसलिए यह उचित है कि टैक्स छूट वाले स्लैब जैसे टैक्स सेविंग निवेश, इंफ्रा बांड, आरजीईएसएस, चिकित्सा खर्च, एचआरए व अन्य स्लैब में महंगाई के अनुरूप बदलाव होना चाहिए।
धीरेंद्र कुमार