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    फिल्म रिव्यू: द लेजेंड ऑफ माइकल मिश्रा, नाम बड़े पर दर्शन छोटे-खोटे

    फिल्म पटना में सेट है। कहानी का नायक माइकल मिश्रा है। वह बचपन में दर्जी था, पर एक दबंग का गला उससे चूक से दब जाता है। दबंग मर जाता है और उसकी कुर्सी माइकल मिश्रा को मिल जाती है।

    By Tilak RajEdited By: Updated: Fri, 05 Aug 2016 10:58 AM (IST)

    -अमित कर्ण

    प्रमुख किरदार- अरशद वारसी, अदिति राव हैदरी और बमन ईरानी।

    निर्देशक- मनीष झा

    संगीत निर्देशक- मीत बदर्स अन्जान

    स्टार- 0.5 स्टार

    फिल्म 'द लेजेंड ऑफ माइकल मिश्रा' में बचपन में परिस्थितियों के चलते अपराध का दामन थाम चुके युवक के डाकू से संत बनने की कहानी बयां की गई है। संत बनने की वजह एक लड़की से बेइंतहा मुहब्बत है। मुहब्बत की वजह से संत बनने का सफर पूरी फिल्म में चलता है। ऐसा प्लॉट हिंदी फिल्मों में घिस-पिट चुका है। समझ से परे है कि मनीष झा ने फिर भी इस कथानक में क्यों हाथ लगाया। फिल्म स्तरहीन, हास्यास्पद और उबाऊ बनकर रह गई है। एकबारगी यकीन नहीं होता है कि यह उसी प्रतिभावान फिल्मकार की फिल्म है, जिसने ‘मातृभूमि...’ और ‘अनवर’ बनाई थी।

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    फिल्म पटना में सेट है। कहानी का नायक माइकल मिश्रा है। वह बचपन में दर्जी था, पर एक दबंग का गला उससे चूक से दब जाता है। दबंग मर जाता है और उसकी कुर्सी माइकल मिश्रा को मिल जाती है। वह आगे चलकर किडनैपिंग का सरताज बन जाता है। नायिका अनाथ वर्षा शुक्ला है। उसे अभिनेत्री बनना है, पर अंग्रेजी से तंग है। उस वजह से उसे बड़े मौके नहीं मिल रहे। एक टैलेंट शो में मिथिलेश नामक शख्स उसकी मदद करता है और वह उससे प्यार कर बैठती है। उसी शो में किडनैपिंग के इरादे से आए माइकल मिश्रा को वर्षा दिखती है। उसमें उसे बचपन की लड़की का अक्स नजर आता है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि मिथिलेश को फेंका गया प्रेम पत्र माइकल मिश्रा को मिल जाता है। उस पत्र में सुधरने की बात लिखी होती है। अब माइकल मिश्रा खुद को कानून के हवाले कर देता है। उधर मिथिलेश घर छोड़ कहीं चला जाता है। वर्षा येन-केन-प्रकारेण मुंबई जा अभिनेत्री बन जाती है।

    माइकल मिश्रा बने हैं अरशद वारसी, जबकि वर्षा शुक्ला के रोल में अदिति राव हैदरी हैं। माइकल मिश्रा के लक्ष्मण सरीखे भाई हाफ पैंट बने हैं कायोज ईरानी। वह बड़ा होकर फुल पैंट बन जाता है। वह रोल बमन ईरानी ने प्ले किया है। फुल पैंट फ्लैशबैक में माइकल मिश्रा के लेजेंड बनने की कहानी लोगों को सुनाता है।

    कहानी, पटकथा, संवाद, कथाभूमि व कलाकारों के बिहारी लहजे सब के सब स्तरहीन हैं। कहीं नहीं लगता कि उनकी डिटेलिंग पर काम हुआ है। पटना के लोकेशन पर फिल्म शूट हुई नहीं है। ऐसे में पटना की फील फिल्म में नदारद है। बिहारी लहजे में बोली गई हिंदी मजाक बनकर रह गई है। इतनी बुरी हिंदी भी बिहारी नहीं बोलते। आंचलिकता का प्रभाव होने के बावजूद ढीली पटकथा होने की वजह से अरशद वारसी और बमन ईरानी जैसे कलाकारों की प्रतिभा नष्ट हुई है। गीत-संगीत में भी दम नहीं है।

    अवधि : 124 मिनट