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    फिल्म रिव्यू : मिस टनकपुर हाजिर हो (2.5 स्टार)

    By Monika SharmaEdited By:
    Updated: Fri, 26 Jun 2015 02:24 PM (IST)

    पत्रकार रहे विनोद कापड़ी की पहली फिल्मं है 'मिस टनकपुर हाजिर हो'। राजस्थान की सच्ची घटनाओं पर आधारित इस फिल्म की कथाभूमि हरियाणा की कर दी गई है। विनोद कापड़ी ने कलाकारों से लेकर लोकेशन तक में देसी टच रखा है। यह फिल्म भारतीय समाज के एक विशेष इलाके में

    अजय ब्रह्मात्मज
    प्रमुख कलाकार: राहुल बग्गा, अनु कपूर, रवि किशन, ऋषिता भट्ट
    निर्देशक: विनोद कापड़ी
    संगीतकार निर्देशक: सुष्मित सेन/पलाश मुचल
    स्टार: 2.5

    पत्रकार रहे विनोद कापड़ी की पहली फिल्मं है 'मिस टनकपुर हाजिर हो'। राजस्थान की सच्ची घटनाओं पर आधारित इस फिल्म की कथाभूमि हरियाणा की कर दी गई है। विनोद कापड़ी ने कलाकारों से लेकर लोकेशन तक में देसी टच रखा है। यह फिल्म भारतीय समाज के एक विशेष इलाके में चल रही भ्रष्ट व्यवस्था को उजागर करती है। विनोद की अप्रोच कॉमिकल है। उन्होंने अपने किरदारों को सहज स्थितियों में रखा है और खास चुटीले अंदाज में गांव में चल रही मिलीभगत को पेश कर दिया है।

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    टनकपुर गांव में प्रधान सुआलाल टेन+ टू पढ़ा है। 'डोंट टेक मी आदरवाइज' उसका तकियाकलाम है। गांव में उसकी मनमानी चलती है। अपने सहयोगी भीमा और शास्त्री के साथ मिल कर उसने गांव की सारी गतिविधियों में नकेल डाल रखी है। प्रौढ़ावस्था में उसने माया से शादी कर ली है, जिसे वह भावनात्मक और शारीरिक तौर पर संतुष्ट नहीं कर पाता। गांव के एक मनचले युवक अर्जुन का उस पर दिल आ जाता है। सहानुभूति और प्रेम की वजह से दोनों का मिलना-जुलना बढ़ता है। सुआलाल को भनक लगती है। एक दिन अर्जुन को रंगे हाथों पकड़ने के बाद वह अपनी इज्जत बचाते हुए शातिर तरीके से उस पर भैंस के बलात्कार का आरोप लगा देता है। इसके बाद गांव का भ्रष्ट कुचक्र आरंभ हो जाता है। एक-एक कर सभी की वास्तविक सूरत नजर आती है। भ्रष्टाचार के भंवर में डूबते-उतरते किरदारों के बीच केवल सच डूबता है।

    विनोद कापड़ी की ईमानदार पहली कोशिश की सराहना होनी चाहिए। उन्होंने उत्तर भारत के कड़वे यथार्थ को तंजिया तरीके से पेश किया है। फिल्मों के संवाद में हिंदी व्यंग्यकारों की परंपरा का मारक अंदाज है। कहीं कम हंसी आती है तो कहीं ज्यादा हंसी आती है। कमी है तो निरंतरता की। पटकथा और दृश्यों के संयोजन की आंतरिक समस्या है। उसकी वजह से कथानक का असर कमजोर होता है। छोटे-छोटे प्रसंग स्वतंत्र रूप से मजेदार और कचोटपूर्ण हैं, लेकिन वे जुड़कर कथा के प्रभाव को मजबूत नहीं करते। फिल्म की तकनीकी कमजोरियां उभर कर कथा की कमजोरियों पर छा जाती है। सच्ची घटना पर यह कच्ची फिल्म रह गई है। उम्दा तकनीकी कौशल और सहयोग से फिल्म और बेहतर हो सकती थी। विनोद कापड़ी की निर्देशकीय कल्पना में भी कच्चापन है। यह कच्चापन चरित्रों के निर्वाह, उनकी भाषा और उनके अंतर्संबंध में जाहिर होता है।

    रवि किशन की भाषा बार-बार फिसलती है और हरियाणवी की जगह खड़ी हिंदी हो जाती है। भाषा की दिक्कत को दरकिनार कर दें तो उन्होंने भीमा सिंह के किरदार को सहजता से निभाया है। अनु कपूर और ओम पुरी के युगल दृश्य अच्छे बने पड़े हैं। उनके लिए कुछ नया नहीं था। संजय मिश्रा कुछ दृश्यों में खूब हंसाते हैं, लेकिन वे कई बार दृश्य से बाहर निकल जाते हैं। वे अपने मैनरिज्म में बंध रहे हैं। राहुल बग्गा ने अर्जुन के किरदार की सादगी बरकरार रखी है। लेखक ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। ऋषिता भट्ट को नाम मात्र के दृश्य मिले हैं। भीड़ के दृश्यों में ग्रामीणों का इस्तेमाल बेहतर है, लेकिन उन्हें हिदायत देनी थी कि वे कैमरा कौंशस न हों। एक-दो की वजह से कुछ दृश्यों का प्रभाव कम हो गया है। मिस टनकपुर बनी भैंस को संभालना आसान नहीं रहा होगा।

    विनोद कापड़ी की 'मिस टनकपुर हाजिर हो' अच्छी सटायर फिल्म होते-होत रह गई है। हां, पहली कोशिश की ईमानदारी से ऐसा लगता है कि अनुभव के साथ अनगढ़पन और कच्चापन कम होगा तो भविष्य में प्रभावशाली फिल्म आ सकती है। विनोद कापड़ी के पास विचार और दृष्टि है। बस, उन्हें पर्दे पर सटीक तरीके से उतारने के अभ्यास की जरूरत है। फिल्मों में गुणवत्ता प्रोडक्शन वैल्यू से भी आती है।

    अवधिः 134 मिनट
    abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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