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    फ़िल्म समीक्षा: एक बार देखने लायक है यह 'लखनऊ सेन्ट्रल' (ढाई स्टार)

    कुल मिलाकर 'लखनऊ सेंट्रल' कोई महान फ़िल्म तो नहीं मगर एक बार देखी जा सकती है।

    By Hirendra JEdited By: Updated: Sat, 16 Sep 2017 01:00 AM (IST)
    फ़िल्म समीक्षा: एक बार देखने लायक है यह 'लखनऊ सेन्ट्रल' (ढाई स्टार)

    -पराग छापेकर

    मुख्य कलाकार: फ़रहान अख़्तर, डायना पेंटी, रोनित रॉय, गिप्पी ग्रेवाल, दीपक डोबरियाल आदि।

    निर्देशक: रंजीत तिवारी

    निर्माता: निखिल आडवाणी

    जेल की ज़िंदगी, उसमें होने वाली राजनीति, वर्चस्व की लड़ाई, मारपीट, कैदियों की भावनाएं, आजादी की ललक और उससे उपजा ड्रामा, यह हमेशा फिल्मी दुनिया को लुभाते आए हैं। 'दो आंखें बारह हाथ', 'बंदिनी' से लेकर मधुर भंडारकर की 'जेल' और अब 'लखनऊ सेंट्रल'। निर्देशक रंजीत तिवारी की यह फ़िल्म सत्य घटना से प्रभावित है। लखनऊ जेल में कैदियों द्वारा ही चलाए गए हिलींग हार्ट्स बैंड से प्रभावित होकर उन्होंने यह कहानी लिखी है।

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    मुरादाबाद का एक लड़का किशन यानी फ़रहान अख़्तर अपना बैंड बनाना चाहता है। जोश और उत्साह से भरे इस लड़के की ज़िंदगी में एक ऐसा मोड़ आता है जहां उस पर क़त्ल का आरोप लग जाता है! और वह पहुंच जाता है लखनऊ सेंट्रल जेल। यहां रिफॉर्म करते हुए बैंड बनाने का काम होना और ऐसे में खतरनाक आरोपियों से भरे इस जेल में क्या बैंड बन पाएगा? कुछ इसी ताने-बाने पर बुनी गई है 'लखनऊ सेंट्रल'।

    फ़िल्म का स्क्रीनप्ले बहुत ही अच्छा लिखा गया है और कहानी भी मनोरंजक है। क्लाइमेक्स में स्क्रीनप्ले पर और मेहनत की जाती तो अच्छा होता! इसे और सटीक बनाया जा सकता था। फ़िल्म का कैमरा वर्क और एडिटिंग कसी हुई है। संगीत पर भी काफी मेहनत की गई है।

    अभिनय की बात करें तो फ़रहान ने इस किरदार में जान डालने की भरपूर कोशिश की है। मगर, जिस तरह से उन्होंने मिल्खा सिंह के लिए जबरदस्त मेहनत की थी उससे वो इस फ़िल्म में बचते नजर आए। अगर वह अपना वजन थोड़ा कम कर लेते तो एक कॉलेज स्टूडेंट या उसके आस-पास का उनका किरदार थोड़ा कन्विन्शिंग लगता। उन्होंने जिस किरदार को गढ़ा है, उसमें भी खामियां नज़र आती हैं।

    यह भी देखें: फिल्म रिव्यू: लखनऊ सेंट्रल

    किशन के पिता बने रोबिन दास एक दृश्य में अंग्रेजी की मशहूर कहावत को बड़ी बेबाकी से, नायिका से कहते हैं। ऐसे पढ़े-लिखे लाइब्रेरियन का बेटा अंग्रेजी के शब्दों का उच्चारण ना कर पाए यह बात हजम नहीं होती। डायना पेंटी के किरदार में कुछ और वजन डाला जा सकता था। गिप्पी ग्रेवाल, दीपक डोबरियाल, राजेश शर्मा और इनामुल ने भी अपने-अपने किरदारों को जिया है। रवि किशन थोड़ी देर के लिए आते हैं मगर छा जाते है। इस फ़िल्म का सबसे जबरदस्त पावरफुल परफॉर्मेंस रहा रोनित रॉय का! जेलर के किरदार में उन्होंने सचमुच जान डाल दी है। कुल मिलाकर 'लखनऊ सेंट्रल' कोई महान फ़िल्म तो नहीं मगर एक बार देखी जा सकती है।

    जागरण डॉट कॉम रेटिंग: 5 में से 2.5 (ढाई स्टार)

    अवधि: 2 घंटे 15 मिनट