सीखने-सिखाने का सफर
मुंबई। पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस कदर दिलीप कुमार के करियर की ट्रेन अदाकारी की पटरी पर आ खड़ी हुई। उनका नाम भी युसूफ से दिलीप कुमार हो गया। वह भी दिलचस्प कहानी रही थी। उन दिनों जिस मिजाज की फिल्में बनती थीं, उनमें नायक का नाम हिंदू धर्म के अनुरूप रहा करता था।
मुंबई। पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस कदर दिलीप कुमार के करियर की ट्रेन अदाकारी की पटरी पर आ खड़ी हुई। उनका नाम भी युसूफ से दिलीप कुमार हो गया। वह भी दिलचस्प कहानी रही थी। उन दिनों जिस मिजाज की फिल्में बनती थीं, उनमें नायक का नाम हिंदू धर्म के अनुरूप रहा करता था। साथ ही दिलीप कुमार अशोक कुमार की जगह फिल करने के इरादे से लाए गए थे। अशोक कुमार दरअसल अपनी प्रोडक्शन कंपनी ऑपरेट करने में जुट गए थे। लिहाजा वे बॉम्बे टॉकीज का साथ छोड़ चुके थे। खैर, युसूफ खान का नाम क्या रखा जाए, इसको लेकर काफी सोचना हुआ। बॉम्बे टॉकीज के लिए कहानियां लिखने वाले पंडित नरेंद्र शर्मा वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार नाम का विकल्प लेकर आए। बॉम्बे टॉकीज के लिए तब साहित्यकार भगवती चरण वर्मा कहानियां व स्क्रिप्ट का काम सुपरवाइज करते थे। उन्हें दिलीप नाम पसंद आया। आखिर में उसी नाम पर मुहर लगी।
दिलीप कुमार स्वभाव से शर्मीले थे। लिहाजा अदाकारी का मैदान उनके लिए शुरुआती दिनों में किसी युद्ध के मैदान से कम नहीं था। लेकिन उन्हें बॉम्बे टॉकीज से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर सहारा मिला। वे कहते हैं, 'अगर ढंग से कपड़े पहनकर न आओ, तो फटकार पड़ने में देर नहीं लगती थी। एक निश्चित तौर-तरीके का ड्रेस कोड फॉलो करना पड़ता था। मुझे स्टूडियो ने हायर तो कर लिया था, पर मुझे महसूस हुआ कि अभी काफी कुछ सीखना है। पहले तो मुझे ढेर सारी किताबें पढ़ने की जरूरत महसूस हुई। स्टूडियो की लाइब्रेरी में 14,000 किताबें थीं। वहां मैंने अपना वक्त बिताना शुरू किया। स्टूडियो की क्रिएटिव टीम से उस जमाने के नामीगिरामी साहित्यकार भी जुड़े हुए थे। उनके साथ बातचीत करता।'
पढ़ाई-लिखाई के अलावा स्टूडियो से जुड़े सभी कलाकारों को हर दिन स्टूडियो आना अनिवार्य था। वैसा न करने वालों की पगार से 100 रुपए काट लिए जाते थे। दिलीप कुमार के साथ भी एक बार ऐसा हुआ। एक दिन उन्होंने स्टूडियो जाने की बजाय हॉकी खेली और मैटिनी शो देखने थिएटर चले गए। वहां देविका रानी भी अपनी सहेलियों के साथ फिल्म देखने आई हुई थीं। देविका रानी के साथ फिल्मकार मोहन भवनानी की पत्नी रामा राव और जे आर डी टाटा की पत्नी बेगम जमशेदजी भी थीं। इंटरवल में जब दिलीप कुमार चाय पीने बाहर निकले, तो सबकी नजर उन पर और उनकी नजर उन सब पर पड़ी। बेचारे दिलीप कुमार भागते हुए देविका रानी के पास गए। उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम थी, लेकिन देविका रानी ने ठंडे दिमाग से काम लिया। दिलीप कुमार का परिचय सबसे करवाया। इतना ही नहीं, अपने टैक्सी ड्राइवर से कहा कि साहब को स्टूडियो छोड़ आओ। दिलीप कुमार हैरान थे और खुश भी, लेकिन उनकी खुशी तब काफूर हुई, जब अगले महीने की सैलरी उनके पास आई, उसमें से 100 रुपए कट चुके थे।
बहरहाल, दिन 1 मई 1942 का आया। दिलीप कुमार की तब उम्र 19 साल 5 महीने थी। जिंदगी में उन्होंने कभी कैमरा फेस नहीं किया था। 1944 में उनकी पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' आई। वह बहुत बड़ी हिट तो नहीं थी, पर उसमें कलाकारों ने बेमिसाल अदाकारी की थी। वह फिल्म आज महज दिलीप साहब की अद्वितीय अदाकारी के लिए याद की जाती है। खैर, फिर आई उनकी 'शहीद'। उसे रमेश सहगल ने निर्देशित की थी। उस फिल्म की कहानी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करने वाले क्रांतिकारियों पर आधारित थी। एक एंटी-अंग्रेज युवा के रोल में दिलीप कुमार कमाल के लगे। वह फिल्म हिट हुई। उनकी फिल्मों को लोगों ने बेशक पसंद किया था, लेकिन शुरुआत की कुछ फिल्मों में दिलीप कुमार की अदाकारी को लेकर उस समय के समीक्षकों ने जमकर लताड़ लगाई थी।
(क्रमश:)
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