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'लखनऊ सेंट्रल' और 'क़ैदी बैंड' से पहले इन फ़िल्मों में दिखायी जा चुकी है जेल की ज़िंदगी

1957 की फ़िल्म दो आंखें बाराह हाथ क्लासिक फ़िल्मों में गिनी जाती है। वी शांताराम निर्देशित ये फ़िल्म 6 क़ैदियों पर आधारित थी।

By मनोज वशिष्ठEdited By: Published: Fri, 18 Aug 2017 04:59 PM (IST)Updated: Sat, 19 Aug 2017 08:49 AM (IST)
'लखनऊ सेंट्रल' और 'क़ैदी बैंड' से पहले इन फ़िल्मों में दिखायी जा चुकी है जेल की ज़िंदगी
'लखनऊ सेंट्रल' और 'क़ैदी बैंड' से पहले इन फ़िल्मों में दिखायी जा चुकी है जेल की ज़िंदगी

मुंबई। रियल लाइफ़ में कोई जेल की हवा नहीं खाना चाहता, मगर रील लाइफ़ के ज़रिए दर्शकों को अक्सर जेल की सैर करने को मिल जाती है। जेल को केंद्र में रखकर वैसे तो हिंदी सिनेमा में ज़्यादा फ़िल्मों का निर्माण नहीं किया गया है, मगर कुछ फ़िल्में ऐसी आयी हैं, जिनकी कहानी जेल और क़ैदियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है।

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फ़रहान अख़्तर की तो आने वाली फ़िल्म का ही टाइटल ‘लखनऊ सेंट्रल’ है। फ़िल्म में फ़रहान क़ैदी के रोल में हैं, जो जेल में रहते हुए एक म्यूज़िक बैंड बनाता है। डायना पेंटी फ़िल्म में फ़ीमेल लोड रोल निभा रही हैं।

 

रणबीर कपूर के कज़िन आदर जैन क़ैदी बैंड से बॉलीवुड में डेब्यू कर रहे हैं। इस फ़िल्म की कहानी लखनऊ सेंट्रल से मिलती-जुलती है। आदर का किरदार अपनी आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए अपने जेल के साथियों के साथ मिलकर म्यूज़िक बैंड बनाते हैं। इन दोनों ही फ़िल्मों में जेल की ज़िंदगी विस्तार से दिखायी जाएगी।

2016 में आयी उमंग कुमार की फ़िल्म सरबजीत की कहानी पाकिस्तानी जेल में बंद सरबजीत की ज़िंदगी पर बेस्ड थी। जेल में सरबजीत को किन हालात से गुज़रना पड़ा होगा, इसे काफ़ी प्रभावी ढंग से दिखाया गया था।

 

वास्तविकता के क़रीब रहने वाले फ़िल्ममेकर मधुर भंडारकर भी जेल (2009) टाइटल से फ़िल्म बना चुके हैं, जिसमें नील नितिन मुकेश ने लीड रोल निभाया था। मधुर ने जेल के ज़रिए सलाखों के पीछे की ज़िंदगी के कई अच्छे और बुरे पहलू लोगों को दिखाये थे। मनोज बाजपेयी ने भी फ़िल्म में एक रोल निभाया था।

 

2003 में रिलीज़ हुई नागेश कुकुनूर की फ़िल्म 3 दीवारें की कहानी के केंद्र में एक जेल और सज़ा काट रहे तीन कैदी होते हैं। नसीरुद्दीन शाह, जैकी श्रॉफ़ और ख़ुद नागेश ने तीनों क़ैदियों के किरदार निभाये। जूही चावला ने फ़िल्म में एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर का रोल निभाया था, जो इन तीनों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने जेल जाती है।

 

1986 में आयी सुभाष घई की फ़िल्म कर्मा वैसे तो रिवेंज स्टोरी है, मगर इसके केंद्र में एक जेल और जेलर है। जेलर के किरदार में हिंदी सिनेमा के थेस्पियन दिलीप कुमार थे, जिसकी जेल में ख़तरनाक आतंकवादी डॉक्टर डैंग (अनुपम खेर) बंद होता है।कर्मा में जेल की ज़िंदगी को क़रीब से दिखाया गया था।

1963 की फ़िल्म बंदिनी की कहानी में जेल ने अहम रोल अदा किया था। नूतन का किरदार जेल में रहने वाली बंदिनी का होता है। फ़िल्म में अशोक कुमार और धर्मेंद्र ने लीड रोल्स निभाये थे।

 

1957 की फ़िल्म दो आंखें बाराह हाथ क्लासिक फ़िल्मों में गिनी जाती है। वी शांताराम निर्देशित ये फ़िल्म 6 क़ैदियों पर आधारित थी, जिन्हें सुधारने की ख़ातिर एक जेल वार्डन अपनी जान दे देता है। फ़िल्म में जेल वार्डन का किरदार ख़ुद वी शांताराम ने निभाया था। इस फ़िल्म का गीत ‘ए मालिक तेरे बंदे हम’ आज भी एंथेम की तरह याद किया जाता है।


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