उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की धीमी रफ्तार पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर केंद्र सरकार के प्रति सख्ती दिखाई। इस क्रम में उसने यहां तक कहा कि क्या सरकार न्यायालयों में ताले लगाना चाहती है? चूंकि सुप्रीम कोर्ट किसी से भी जवाब तलब कर सकता है और उसे फटकार भी लगा सकता है इसलिए आए दिन कोई न कोई उसकी फटकार के निशाने पर होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अन्य संवैधानिक संस्थाओं के मुकाबले उसकी जवाबदेही कम हो जाती है। उसे सवाल करने के साथ ही सवाल सुनने भी चाहिए और उनका जवाब भी देना चाहिए। वह इससे अच्छी तरह अवगत है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में गतिरोध की एक वजह मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर को अंतिम रूप न दिया जाना है। मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित है और इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी संविधान संशोधन कानून को खारिज करने के बाद खुद सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि कोलेजियम व्यवस्था में कुछ खामियां हैं। इन खामियों को दुरुस्त करने के लिए उसने ही सरकार को मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर बनाने का निर्देश दिया था। जब सरकार ने उसे इस हिसाब से तैयार किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी बने तो सुप्रीम कोर्ट को उसके कई प्रावधान रास नहीं आए। तबसे यह मामला अधर में है। क्या यह उचित है कि सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों की नियुक्ति पर तो जोर दे, लेकिन मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर
को अंतिम रूप देने के मामले में तत्परता का परिचय देने से इंकार करे?
यदि मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर पर सहमति बने बिना ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां होती रहती हैं तो फिर कोलेजियम व्यवस्था ठीक करने के भरोसे का क्या होगा?
यह समझना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर क्यों पहुंच रहा है कि मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर को अंतिम रूप दिए बगैर भी न्यायाधीशों की नियुक्ति होती रहनी चाहिए? बेहतर होगा कि वह उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने को लेकर जैसी तत्परता का परिचय दे रहा है वैसी ही प्राथमिकता मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर को अंतिम रूप प्रदान करने को भी दे। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि सरकार की ओर से साफ तौर पर कहा जा रहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी का एक कारण मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर पर सहमति न बनना है। सुप्रीम कोर्ट को भी यह स्मरण होना चाहिए कि खुद उसकी ओर से कोलेजियम व्यवस्था में सुधार का आश्वासन दिया गया था। भले ही उसने न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी कानून को खारिज कर दिया हो, लेकिन वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि कोलेजियम व्यवस्था के प्रति गहरी असहमति है। इस असहमति के अच्छे-खासे आधार हैं, क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के तहत एक तरह से न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। ऐसा किसी श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश में नहीं है। इस संदर्भ में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोलेजियम के तहत न्यायाधीशों की मौजूदा नियुक्ति प्रक्रिया एक बड़ी हद तक अपारदर्शी है और इसकी पुष्टि एक बड़ी संख्या में न्यायाधीशों के संबंधियों और परिचितों के न्यायाधीश बनने से होती है। निसंदेह जहां एक ओर सरकार के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उन कारणों को स्पष्ट किया जाए जिनके चलते उसे कोलेजियम की ओर से भेजे गए नामों को मंजूरी देने में देर हो रही है वहीं दूसरी ओर यह भी सुनिश्चित किया जाए कि लोगों को समय पर न्याय कैसे मिले।

[ मुख्य संपादकीय ]