हिंसा की वापसी
मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा की आग जिस तरह फिर से भड़क उठी और इसके चलते चार लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी उससे उन दावों का खोखलापन स्वत: सामने आ गया जिनके तहत यह कहा जा रहा था कि इस जिले में हालात पूरी तरह नियंत्रण में आ गए हैं। हिंसा की ताजा घटनाओं ने यह भी साबित कर दिया कि सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की जो घोषणाएं की गई वे दिखावटी ही अधिक थीं। मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा की आग जिस तरह शांत होने का नाम नहीं ले रही है उसे देखते हुए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अथवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इस दावे पर भरोसा करना कठिन है कि साजिश रचने वाले तत्वों से सख्ती से निपटा जाएगा। उनकी ओर से ऐसे ही दावे न जाने कितनी बार किए जा चुके हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के क्षेत्रों में वे तत्व बेलगाम ही नजर आ रहे हैं जो माहौल बिगाड़ने में लगे हुए हैं।
यह विडंबना ही है कि जिस दिन सपा प्रमुख ने सांप्रदायिकता के खिलाफ राजधानी दिल्ली में आयोजित एक सम्मेलन में यह दावा किया कि उत्तर प्रदेश में जब-जब उनकी सरकार ने सख्ती की तब-तब सांप्रदायिक ताकतों को मुंह की खानी पड़ी उसी दिन मुजफ्फरनगर एक बार फिर सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल उठा। सांप्रदायिकता के खिलाफ हर स्तर पर संघर्ष किया ही जाना चाहिए, लेकिन सपा प्रमुख को यह भी देखना होगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हालात सही मायने में सामान्य क्यों नहीं हो पा रहे हैं? उन्हें इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि राज्य सरकार में शामिल मंत्रियों की एक समिति ने ही मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा से निपटने में पुलिस-प्रशासन की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इसी तरह इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विगत दिवस हुई हिंसा की घटनाओं के संदर्भ में खुद पुलिस महानिदेशक यह स्वीकार कर रहे हैं कि पुलिस से दोबारा गलती हुई। इन स्थितियों में ऐसा कोई दावा कैसे किया जा सकता है कि राज्य सरकार हिंसा फैलाने वाले तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने और माहौल को सामान्य बनाने के लिए प्रतिबद्ध है?
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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