शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की बढ़ती मांग से जूझ रहे देश को गुजरात सरकार ने एक सही राह दिखाने की कोशिश की है। राज्य सरकार ने आर्थिक आधार पर पिछड़े सभी वर्गो को आरक्षण देने का फैसला किया है। इस आरक्षण के दायरे में वे सभी परिवार आएंगे जिनकी सालाना आय छह लाख रुपये से कम होगी। आर्थिक आरक्षण के लिए गुजरात सरकार जल्द अध्यादेश लाएगी। इस बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता कि यह अध्यादेश आसानी से कानून का रूप ले सकेगा या नहीं, क्योंकि गुजरात सरकार के इस फैसले को चुनौती दी जा सकती है। चुनौती देने का एक आधार यह बन सकता है कि संविधान आर्थिक आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता।

यह सही है कि संविधान में आर्थिक आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि कुछ राज्यों में जातिगत आरक्षण की सीमा 50 फीसद को पार कर गई है। यह सर्वोच्च न्यायालय की इस व्यवस्था के बावजूद है कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। जिन राज्यों ने इससे अधिक आरक्षण प्रदान किया है उन्होंने अतिरिक्त आरक्षण संबंधी फैसले संविधान की नौवीं अनुसूची में रखे हैं ताकि उनकी न्यायिक समीक्षा न की जा सके। इन स्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि आर्थिक आरक्षण पर विधायिका और न्यायपालिका नया नजरिया अपनाए।

आरक्षण के मामले में नए नजरिये की आवश्कता इसलिए है, क्योंकि जिस तरह गुजरात में पटेल समुदाय आरक्षण की मांग कर रहा है उसी तरह अन्य अनेक वे समुदाय भी आरक्षण मांग रहे हैं जिनकी गिनती पिछड़े वर्गो में नहीं होती। ऐसे समुदायों की संख्या लगातार बढ़ती चली जा रही है और राजनीतिक दल इसकी अनदेखी करने की स्थिति में नहीं हैं। अनदेखी की स्थिति में सामाजिक समरसता को क्षति पहुंचने की आशंका है। इन स्थितियों में आरक्षण के मामले में नई सोच के साथ आगे बढ़ना वक्त की मांग है।

समाज के सभी तबकों को संतुष्ट करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता पड़े तो इस पर विचार किया जाना चाहिए। आम तौर पर इस मामले में विचार करने में यह दलील दी जाती है कि संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं हो सकता जो उसके मूल ढांचे के अनुकूल न हो। यह सही समय है जब इसे स्पष्ट किया जाए कि संविधान का मूल ढांचा है क्या? आखिर संविधान का वह कौन सा अंश है जिसे मूल ढांचा बताया जा रहा है? यह ठीक है कि कुछ चुनिंदा फैसलों में संविधान के मूल ढांचे की दुहाई दी गई है, लेकिन यह भी सही है कि आज तक उसे परिभाषित नहीं किया गया।

अच्छा यह होगा कि ऐसी कोई व्यवस्था बने जिससे जातिगत आरक्षण के साथ-साथ आर्थिक आधार पर आरक्षण को भी संवैधानिक मान्यता मिल सके। इसके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा कोई उपाय नहीं दिखता जिसके जरिये आरक्षण की बढ़ती मांगों को संतुष्ट किया जा सके। यदि जातिगत आरक्षण में क्रीमी लेयर के रूप में आर्थिक स्थिति को एक पैमाने के रूप में मान्य किया गया है तो फिर एससी-एसटी एवं अन्य पिछड़ा वर्गो के अतिरिक्त तबकों को आर्थिक आधार पर आरक्षण को मान्य क्यों नहीं किया जा सकता? समय के साथ समाज की जरूरत बदलती है। संविधान को भी इस जरूरत को पूरी करने में सहायक बनना चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय ]