एक भव्य समारोह में उत्तर प्रदेश सरकार के शपथ ग्रहण के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके साथियों का कठिन चुनौतियों से मुकाबला भी शुरू हो गया है। योगी सरकार को अपने चुनावी घोषणापत्र के वायदों को पूरा करने के मामले में प्राथमिकता का परिचय देने के साथ ही जनअपेक्षाओं को भी पूरा करना है। इसके साथ ही उसे उन आशंकाओं को भी दूर करना है जो इस आधार पर जताई जा रही हैं कि आदित्यनाथ हिंदुत्व के प्रति विशेष आग्रही हैं और तीखे तेवर रखते हैं। ये आशंकाएं विपक्षी दलों के साथ-साथ बुद्धिजीवियों की ओर से भी व्यक्त की जा रही हैं। आदित्यनाथ के पास अपने आलोचकों को गलत सिद्ध करने के साथ ही यह साबित करने का सही अवसर है कि हिंदुत्व ही भारतीयता है और उसमें सभी के लिए समान स्थान और आदर है-ठीक वैसे ही जैसे उस गोरक्ष पीठ में है जिसके पीठाधीश्वर वह खुद हैं। यह जानना सुखद है कि इस मठ में सभी जाति-समुदाय के लोगों को समान महत्व एवं आदर प्राप्त है। कुछ ऐसी ही झलक उन्हें अपने शासन में भी दिखानी होगी। इसलिए और भी, क्योंकि कुछ लोगों की ओर से अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को बढ़ाने का काम किया जा रहा है। निश्चित रूप से योगी सरकार की तमाम प्राथमिकताओं में से एक प्राथमिकता यह भी होनी चाहिए कि अल्पसंख्यकों के मन में जो भी आशंकाएं हैं वे दूर हों। सच तो यह है कि सबका साथ सबका विकास के नारे को अपने शासन का ध्येय वाक्य बनाने वाली उत्तर प्रदेश सरकार की कार्यप्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे कोई भी वर्ग-समुदाय, क्षेत्र अपने को अलग-थलग अथवा उपेक्षित न महसूस करे।
यह अच्छा हुआ कि शपथ ग्रहण के बाद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में प्राथमिकताओं को रेखांकित करते हुए यह स्पष्ट किया कि किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसके बावजूद यह भी स्पष्ट है कि विपक्षी दल उन्हें एक विशेष छवि में कैद करने की कोशिश करेंगे। सच तो यह है कि यह कोशिश शुरू भी हो गई है। बसपा प्रमुख मायावती और कुछ कांग्रेसी नेताओं के बयान इसकी पुष्टि भी करते हैं। विपक्षी नेताओं ने कुछ यही काम तब भी किया था जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे। यह साफ है कि आदित्यनाथ के आलोचक बतौर मुख्यमंत्री उन्हें कोई समय देने के लिए तैयार नहीं। विपक्षी नेताओं के बयान इस ओर भी संकेत कर रहे हैं कि वे जाति एवं संप्रदाय की राजनीति ही करते रहना चाहते हैं। कोई भी सरकार आलोचना से परे नहीं हो सकती। विपक्षी दलों का यह दायित्व है कि वे सरकार के कामकाज पर निगाह रखें, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि उसे कुछ करने का अवसर दिए बिना ही उसकी आलोचना शुरू कर दें। विपक्षी दल यह समझें तो बेहतर कि जाति-धर्म की राजनीति की अपनी एक सीमा है और उत्तर प्रदेश में उनकी दुर्गति इन सीमाओं को लांघने के कारण ही हुई। भले ही जाति-धर्म की राजनीति करने वाले दल खुद को सेक्युलर बताते रहे हों, लेकिन जैसा जनादेश सामने आया उससे उनकी कलई खुल गई है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि जाति-धर्म आधारित राजनीति करने वाले दल अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करेंगे या नहीं, लेकिन योगी सरकार के लिए यह समझना आवश्यक है कि सबका साथ सबका विकास का नारा तभी सार्थक सिद्ध होगा जब उसकी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं दिखेगा।

[ मुख्य संपादकीय ]