कोलेजियम पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने यह कह कर कोलेजियम को लेकर जारी बहस को और गति देने का ही काम किया है कि न्यायपालिका को बदनाम करने के लिए भ्रमित करने वाला अभियान चलाया जा रहा है। यह कहना कठिन है कि उनका इशारा किसकी ओर है, लेकिन शायद वह उन खुलासों के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे जो सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश मार्कडेय काटजू की ओर से किए जा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से मार्कडेय काटजू एक के बाद एक ऐसे खुलासे कर रहे हैं जो न्यायपालिका की साख पर असर डालने वाले हैं। उनकी मानें तो सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों ने भ्रष्ट छवि अथवा कथित तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीशों के खिलाफ वैसी कार्रवाई नहीं की जैसी अपेक्षित थी। हालांकि उनके खुलासों पर यह सवाल उठ रहा है कि आखिर वह इतने दिनों बाद पुराने प्रसंगों को क्यों कुरेद रहे हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि उनके आरोपों को निराधार भी नहीं ठहराया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा इस नतीजे पर भी पहुंचते दिख रहे हैं कि न्यायाधीशों के चयन की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था सही है। वह कोलेजियम की तरफदारी एक ऐसे समय करते दिख रहे हैं जब केंद्र सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक आयोग बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसे संयोग कहें या दुर्योग कि गत दिवस ही सरकार ने कोलेजियम व्यवस्था को खत्म कर छह सदस्यीय एक आयोग के गठन संबंधी संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया है। ऐसे किसी आयोग के गठन की कोशिश एक लंबे अर्से से हो रही है, लेकिन किन्हीं कारणों से वह परवान नहीं चढ़ी। देखना यह है कि कोलेजियम के स्थान पर नई व्यवस्था का निर्माण हो पाता है या नहीं?
चूंकि मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि यदि कोलेजियम गलत है तो हम भी गलत हैं इसलिए संकेत यही मिलता है कि वह अभी भी कोलेजियम व्यवस्था को ही उपयुक्त मान रहे हैं। ऐसी ही राय अन्य अनेक विधि विशेषज्ञों की भी है, लेकिन बहुत से न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में नई व्यवस्था चाह रहे हैं। इसके पीछे कुछ ठोस आधार भी हैं। एक आधार तो मार्कडेय काटजू ही उपलब्ध करा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह भी सामने आ चुका है कि अतीत में कई योग्य न्यायाधीशों का सुप्रीम कोर्ट में चयन नहीं हो सका और कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों हुआ? कोलेजियम व्यवस्था अपारदर्शी भी है और इस व्यवस्था में एक तरह से न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करते हैं। ऐसा अन्य लोकतांत्रिक देशों में मुश्किल से ही देखने को मिलता है। मुख्य न्यायाधीश का नजरिया कुछ भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोलेजियम व्यवस्था की खामियां सामने आ चुकी हैं। इसके स्थान पर एक आयोग के गठन की जो पहल की जा रही है उसके संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सरकार की भूमिका ज्यादा प्रभावी न होने पाए। यदि ऐसा होता है तो एक खामी से दूसरी खामी की ओर बढ़ने वाली बाती होगी। यद्यपि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करना कठिन है जिसमें तनिक भी खामी न हो, लेकिन ऐसी कोशिश तो हो ही सकती है जिससे गलतियों की गुंजाइश न रहे। बेहतर हो कि सरकार और न्यायपालिका आपस में विचार-विमर्श कर नई व्यवस्था के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें।
[मुख्य संपादकीय]














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