राज्य में लगभग नौ महीने टलने के बाद अंतत: छोटी सरकार चुनने की कवायद पूरी हो गई। छोटी सरकार, यानी त्रिस्तरीय पंचायत। ये चुनाव गत सितंबर में प्रस्तावित थे मगर आपदा व अन्य कारणों से लगातार टलते रहे। छिटपुट घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो चुनाव शांतिपूर्ण ही रहे लेकिन इसके नतीजे जरूर सियासी पार्टियों को मंथन करने पर मजबूर करेंगे। पंचायत चुनाव नितांत स्थानीय स्तर पर होते हैं, लिहाजा इसमें मुद्दे भी स्थानीय ही हावी रहते हैं। क्षेत्र की मूलभूत जन समस्याओं के समाधान का भरोसा जिस प्रत्याशी पर हो, मतदाता अमूमन उसी को वोट करते हैं। हालांकि क्षेत्र पंचायत और फिर जिला पंचायत स्तर पर परिणाम तय करने में अन्य कई कारक भी अहम भूमिका में आ जाते हैं। सामान्यतया पंचायत चुनाव सियासी पार्टियां सिंबल पर नहीं लड़ती क्योंकि इसमें अकसर एक ही पार्टी के कार्यकर्ता भी मैदान में आमने-सामने नजर आ जाते हैं। इस बार भी कमोवेश ऐसा ही हुआ लेकिन भाजपा ने जिला पंचायत सदस्य पदों पर पार्टी समर्थित प्रत्याशियों की घोषणा कर दी। दरअसल, हाल ही में मोदी लहर के सहारे लोकसभा चुनाव में रिकार्ड ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली भाजपा ने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि उसे भरोसा था कि पंचायत चुनाव में भी लोकसभा चुनाव की तरह नमो मंत्र चलेगा। अब नतीजे बता रहे हैं कि ऐसा नहीं हुआ और यह भाजपा के लिए किसी झटके से कम नहीं। मतदाताओं ने किसी पार्टी विशेष की बजाए प्रत्याशी को तवज्जो दी। जिला पंचायतों में भाजपा द्वारा घोषित समर्थित प्रत्याशियों में से आधे भी जीत दर्ज नहीं कर पाए। अब हालांकि पार्टी तर्क दे रही है कि जीतने वाले कई प्रत्याशियों में उनकी ही पार्टी के ऐसे कार्यकर्ता शामिल हैं, जिन्हें अधिकृत प्रत्याशी नहीं बनाया गया। सच यह है कि भाजपा खासा वक्त मिलने के बावजूद पंचायत चुनाव के लिए पूरी तैयारी से मैदान में उतरी ही नहीं। प्रदेश संगठन की असली परीक्षा इस चुनाव में होनी थी, जिसमें उसे नाकामयाबी ही हासिल हुई। लोकसभा चुनाव की तर्ज पर लहर के सहारे पंचायत चुनाव की वैतरणी पार करने की पार्टी रणनीतिकारों की मंशा इससे अधूरी ही रह गई। उधर, कांग्रेस इसलिए खुद को राहत में महसूस कर रही है क्योंकि उसने समर्थित प्रत्याशी घोषित किए ही नहीं। हालांकि पार्टी के नेता भी बढ़-चढ़कर यह दावे करने में पीछे नहीं कि उन्हीं की पार्टी के कार्यकर्ता अधिकांश सीटों पर जीते हैं। वैसे हरिद्वार को छोड़कर राज्य के जिन शेष 12 जिलों में पंचायत चुनाव हुए हैं, उनमें जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद ही सही तस्वीर सामने आएगी कि किस सियासी पार्टी के दावे सच्चाई के ज्यादा नजदीक रहे।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]