तेलंगाना की तकदीर
अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन पर सहमति से यही साबित होता है कि केंद्र सरकार के लिए इस मांग को और अधिक टालना संभव नहीं रह गया था। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के मानचित्र पर इस नए राज्य के उभार में अब अनावश्यक देरी नहीं होगी, लेकिन किसी को यह भी बताना चाहिए कि आखिर तेलंगाना पर फैसला लेने में इतनी देर क्यों हुई? यह सवाल इसलिए, क्योंकि इस क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा देने की घोषणा तो दिसंबर 2009 में ही कर दी गई थी और वह भी तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम की ओर से सार्वजनिक रूप से? एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ने 2004 में भी अपने घोषणा पत्र में तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा देने की हामी भरी थी। कहीं ऐसा तो नहीं आंध्र प्रदेश में स्याह होती चुनावी संभावनाओं को देखते हुए अलग राज्य की इस सबसे पुरानी मांग को मानने का फैसला किया गया? नि:संदेह सरकारों के ज्यादातर फैसले चुनावी लाभ-हानि को ध्यान में रखकर होते हैं, लेकिन यह ध्यान रहे कि महत्वपूर्ण मसलों पर बेवजह की हीलाहवाली समस्याओं को जन्म देने का ही काम करती है। कांग्रेस जिन हालात में अलग तेलंगाना राज्य पर सहमत हुई उससे उसके लिए अलग गोरखालैंड, विदर्भ, बोडोलैंड आदि की मांग कर रहे लोगों के सवालों का जवाब देना मुश्किल होगा। क्या यह बेहतर नहीं होता कि केंद्र सरकार राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन के अपने वायदे पर अमल करती ताकि अलग राज्य की सभी मांगों पर नीर-क्षीर ढंग से विचार किया जा सकता? अभी तो देश को कुछ ऐसा संदेश जा रहा है कि अलग राज्य की मांगों पर तभी गौर किया जाएगा जब धरना-प्रदर्शन, आंदोलन आदि का सहारा लिया जाएगा।
तेलंगाना को 29वें राज्य का दर्जा देने की प्रक्रिया चाहे जब पूरी हो, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि आंध्र प्रदेश का यह इलाका अलग राज्य बनने के पर्याप्त आधार रखता है। सबसे बड़ा आधार तो यही है कि शेष राज्य के मुकाबले तेलंगाना पिछड़ेपन से ग्रस्त है और इसी पिछड़ेपन से मुक्ति की चाह के चलते अलग राज्य की मांग ने जोर पकड़ा, न कि भाषा और संस्कृति सरीखे मुद्दों ने। भाषा, संस्कृति आधारित अलग राज्य की मांगों को हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है। नए राज्यों के गठन में ज्यादा जोर इसी पर दिया जाना चाहिए कि ऐसे क्षेत्र अपने बलबूते पिछड़ेपन से मुक्त होने और तेजी से तरक्की करने की क्षमता रखते हों। इसके अतिरिक्त इस पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए कि वे राजनीतिक अस्थिरता से न घिरने पाएं। इस समस्या का समाधान राजनीतिक सुधारों से ही संभव है। सभी जानते हैं कि अलग राज्य के रूप में झारखंड का अनुभव बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा। पर्याप्त आर्थिक क्षमता से लैस झारखंड राजनीतिक अस्थिरता की कीमत चुका रहा है। हमारे राजनीतिक दलों को यह भी समझने की आवश्यकता है कि छोटे राज्यों का प्रशासनिक नियंत्रण तो आसान है ही, वे विकास के भी वाहक हैं, लेकिन बात तब बनेगी जब अलग राज्य की मांगें संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो से प्रेरित नहीं होंगी। फिलहाल यह कहना कठिन है कि देश के विभिन्न हिस्सों में अलग राज्य की जो मांगें उठ रही हैं वे सभी वैसा ही आधार रखती हैं जैसा तेलंगाना रखता है।
[मुख्य संपादकीय]
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