आपातकाल का स्मरण
आपातकाल आधुनिक भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। आपातकाल थोपे जाने के 40 साल पूरे होने पर उसका स्मरण किया जाना आवश्यक है। इतिहास की भूलों का स्मरण भविष्य की गलतियों के लिए गुंजाइश को कम करता है।
आपातकाल आधुनिक भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। आपातकाल थोपे जाने के 40 साल पूरे होने पर उसका स्मरण किया जाना आवश्यक है। इतिहास की भूलों का स्मरण भविष्य की गलतियों के लिए गुंजाइश को कम करता है। आपातकाल पर तमाम चर्चा के बावजूद यह विचित्र है कि 40 साल बाद भी कांग्रेस इसकी जरूरत नहीं महसूस कर रही है कि उसे इंदिरा गांधी की इस भयंकर गलती के लिए देशवासियों से माफी मांगनी चाहिए।
इससे भी विचित्र यह है कि इंदिरा गांधी के करीबी माने जाने वाले कुछ नेता यह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि आपातकाल के लिए इंदिरा नहीं, बल्कि उनके सलाहकार जिम्मेदार थे। यह जानबूझकर तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की शरारत भरी कोशिश है। आपातकाल थोपे जाते समय प्रधानमंत्री पद पर इंदिरा गांधी ही आसीन थीं, न कि उनके सलाहकार। इसी तरह सभी इससे भी परिचित हैं कि आपातकाल इसलिए लागू किया गया, क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध ठहरा दिया था और सर्वोच्च न्यायालय से उन्हें पर्याप्त राहत नहीं मिल सकी थी।
यह कहना सच्चाई से मुंह मोड़ना है कि इंदिरा गांधी अपने सहयोगियों के बहकावे में आ गई थीं अथवा उन्हें आपातकाल लगाने के लिए उकसाया गया था। यदि कांग्रेस आपातकाल के लिए माफी मांगने के लिए तैयार नहीं तो यह उसकी मर्जी, लेकिन उसके नेताओं को देश को गुमराह करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कांग्रेस की ओर से इंदिरा गांधी के बचाव में यह तर्क देने की भी कोशिश होती रही है कि उस वक्त कथित अराजकता के माहौल को दूर करने और बिगड़ी चीजों को दुरुस्त करने के लिए आपातकाल का सहारा लिया गया था। यह भी एक कुतर्क है, क्योंकि चार दशक बाद भी लोगों को यह अच्छी तरह स्मरण है कि हालात सुधारने के नाम पर किस तरह दमन चक्र चलाया गया और बुनियादी नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए कैसे-कैसे प्रयास किए गए?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के दमन के साथ ही संविधान में छेड़छाड़ कर लोकतंत्र को निरीह बनाने का भी काम किया गया। आपातकाल के सिलसिले में इस तथ्य को भी याद रखना जरूरी है कि इस काले अध्याय की शुरुआत इसलिए हो सकी, क्योंकि तत्कालीन राष्ट्रपति तो कठपुतली साबित हुए ही, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इंदिरा गांधी की मनमानी के समक्ष घुटने टेकना बेहतर समझा। यह भी याद रखना जरूरी है कि कम्युनिस्ट दलों ने इस या उस बहाने इंदिरा गांधी का साथ देना अथवा मौन रहना बेहतर समझा। पिछले दिनों कुछ ऐसे स्वर सामने आए हैं कि फिर से आपातकाल लगने की आशंका बनी हुई है, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में इस आशंका के लिए कोई स्थान नहीं नजर आता।
पिछले चार दशकों में लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाएं कहीं अधिक मजबूत हुई हैं। मीडिया मजबूत होने के साथ ही सोशल मीडिया के तौर पर एक नई ताकत आम लोगों के हाथ लगी है। लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती आपातकाल संबंधी आशंकाओं को खारिज करती है, लेकिन इसकी आवश्यकता पहले भी थी और आज भी है कि इस तरह की संस्थाएं और अधिक सजग, सक्रिय और समर्थ बनें। इससे ही आम जनता के हितों और आकांक्षाओं की पूर्ति का मार्ग सही तरह से प्रशस्त होगा।
(मुख्य संपादकीय)













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