भारत पर पाकिस्तान के हालिया हमलों पर देशभर में फैली गुस्से की लहर इन हमलों से कहीं अधिक सरकार के कमजोर जवाब और अटपटी बयानबाजी का नतीजा है। भारत की जनता तो जानती ही है कि पाकिस्तान सरकार और खुद को सरकार समझने वाली वहां की सेना भारतीय हितों पर चोट पहुंचाने का कोई मौका चूकने वाली नहीं है। भारत के खिलाफ पाकिस्तान की जिहाद नीति का मुख्य सिद्धांत है इन्कार की मुद्रा। हमला करो और फिर उसमें संलिप्तता से इन्कार कर दो। भारत को बातों में उलझाए रखकर मामले पर पर्दा डाल दो और अगले हमले की तैयारी में जुट जाओ। इस रणनीति में किसी को भी संदेह नहीं है, किंतु भारत का राजनीतिक तबका इतना भ्रष्ट और समझौतापरस्त है कि उसके पास निहित स्वाथरें की पूर्ति के अलावा किसी बात पर ध्यान देने का जरा भी समय नहीं है।

भारतीय राजनेता अपने हितों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। सर्वविदित है कि भारतीय राजनेता अपने व्यक्तिगत स्वाथरें के प्रति सदैव चिंतित रहते हैं और राष्ट्रीय हितों के लिए उदासीन। अगर वे अपने समय का एक चौथाई हिस्सा भी अपनी मुख्य ड्यूटी- राष्ट्रीय हितों की रक्षा, में लगाते तो आज देश की ऐसी दशा नहीं होती। आज अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है, राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा मंडरा रहा है और चारों ओर हताशा का आलम है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत की समर्पणकारी विदेश नीति की बुनियाद अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में रखी गई थी। भारत में आजादी के बाद से ही कमजोर प्रधानमंत्री रहे हैं। इनमें सबसे कमजोर और ढुलमुल प्रधानमंत्री हैं मनमोहर्न ंसह। जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर और चीन समस्या भारतीय पीढि़यों को विरासत में देने का श्रेय जाता है और इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान पर शानदार जीत को शिमला समझौते से गंवा दिया, किंतु किसी भी प्रधानमंत्री के मुकाबले अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान नीति को सबसे अधिक पलटा है। पाकिस्तान पर वाजपेयी के ढुलमुल रवैये ने संस्थागत नीति निर्माण में कमजोरी को स्थापित किया। यही नहीं, 2003 की बीजिंग यात्रा के दौरान वाजपेयी तिब्बत कार्ड भी गंवा बैठे।

वाजपेयी के शासनकाल में भारत की विदेश नीति का चरित्र पेशेवर की जगह निजी हो गया। पाकिस्तान पर उनके बदलते नजरिये के कारण ही लाहौर, कारगिल, कंधार, आगरा और संसद पर हमले जैसे कांड हुए। इसके बाद भी उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में इस्लामाबाद की दूसरी यात्रा की। आगरा सम्मेलन के कारण ही सैन्य तख्तापलट के चलते अंतरराष्ट्रीय जगत में अलग-थलग पड़े हुए परवेज मुशर्रफ मुख्यधारा में लौट आए। इससे पहले वाजपेयी ने बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों की जान दांव पर लगाकर कारगिल युद्ध केवल भारतीय भूभाग से लड़ा। उन्होंने शत्रु द्वारा निर्धारित किए गए नियमों का पालन किया। ऐसा करते समय उन्होंने लालबहादुर शास्त्री के सिद्धांत को पलट दिया। शास्त्रीजी ने कहा था कि अगर पाकिस्तान कश्मीर में मोर्चा खोलता है तो भारत को सिंध समेत अन्य क्षेत्रों में युद्ध छेड़ देना चाहिए।

ऑपरेशन पराक्त्रम के तहत भारतीय सेना को दस माह तक पाक सीमा पर युद्ध के लिए तैयार रखा गया ताकि उसे अपने देश में आतंकी ढांचा तोड़ने पर मजबूर किया जा सके। किंतु लक्ष्य को हासिल किए बिना ही अचानक वाजपेयी ने इस महंगे, खुद को कमजोर साबित करने वाले तमाशे को बंद कर लिया। ऐसी घटना विश्व आधुनिक इतिहास में कभी नहीं हुई। बाद में नौसेना के प्रमुख ने इसे भारतीय सशस्त्र बलों के लिए सबसे दंडात्मक भूल करार दिया। इससे भी बदतर यह रहा कि 2004 में इस्लामाबाद दौरे के दौरान वाजपेयी एक कागज पर पाकिस्तान के वचन से ही अभिभूत हो गए कि वह सीमापार आतंकवाद के लिए अपने इलाके का इस्तेमाल नहीं करने देगा। इसी प्रकार का आश्वासन मुशर्रफ 2002 में ऑपरेशन पराक्त्रम शुरू होने से पहले भी दे चुके थे। सत्ता को वाजपेयी एंड कंपनी को भ्रष्ट करने में अधिक समय नहीं लगा। यह भारत का सौभाग्य है कि वाजपेयी के सत्ता में आने के छह माह के भीतर ही परमाणु परीक्षण हो गया। अगर छह माह बीत गए होते तो यह परीक्षण कभी नहीं हो पाता। वाजपेयी की आर-पार की लड़ाई की घोषणा अपनी अंदरूनी कमजोरी को बचाने का एक परदा मात्र था। अगर वह किसी भी कीमत पर शांति की नीति नहीं अपनाते तो उनके उत्ताराधिकारी मनमोहन सिंह को पाकिस्तान की तुष्टीकरण की नीति के लिए राजनीतिक जगह नहीं मिल पाती।

वास्तव में, वाजपेयी की ढुलमुल नीति ने ही मनमोहन सिंह को लचर नीति अपनाने का साहस प्रदान किया। इसी कारण पाकिस्तान निडर होकर भारत के खिलाफ हमलावर रुख अपना रहा है। यह मनमोहन सिंह की रणनीतिक चूक ही है कि वह पाकिस्तान और चीन के हमलों के बावजूद उनके साथ मेलमिलाप की प्रक्त्रिया को अंतिम लक्ष्य मान बैठे हैं और इन देशों के हमलों की ओर से आंखें बंद कर ली गई हैं। पाकिस्तान के प्रति मनमोहन सिंह की असाधारण आसक्ति वाजपेयी की इस देश के साथ शांति की आकांक्षा सरीखी ही है। वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल सार्वजनिक जीवन में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए भी याद किए जाएंगे। जब-जब घोटाले सुर्खियों में आते हैं तब-तब पाकिस्तान के साथ शांति निर्माण की बात कर मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने का प्रयास किया जाता है। दोनों कार्यकालों में दामादों की भूमिका राष्ट्रीय भ्रष्टाचार और लूट के प्रतीक के तौर पर उभरी है।

पिछले एक दशक से विदेश मंत्रालय को नीति निर्माण से अधिकाधिक अलग किया जाता रहा। अब तो यह मंत्रालय विदेश तुष्टीकरण मंत्रालय मात्र बनकर रह गया है। पाकिस्तान के तुष्टीकरण में मनमोहन सिंह सारी सीमाएं लांघ गए हैं। 2006 में हवाना में उन्होंने आतंक के निर्यातक को आतंक का शिकार बताकर पाकिस्तान का बचाव किया और कुख्यात संयुक्त आतंकरोधी तंत्र केगठन की बात की। तीन साल बाद शर्म-अल-शेख में मनमोहन सिंह पाकिस्तान के हाथों में खेल गए और बलूचिस्तान में विद्रोह फैलाने में भारत की भूमिका को स्वीकार किया। इस भयंकर भूल का नतीजा यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान आतंकवाद को लेकर भारत को दोषी ठहराने लगा। भारत को यह सवाल परेशान कर रहा है कि क्या अगली सरकार भी अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की लचर विदेश नीति को जारी रखेगी। पाकिस्तान से अपनी शतर्ें मनवाने के बजाय भारत पाकिस्तान को पहल का अवसर प्रदान कर रहा है। जब भी पाकिस्तान भारत पर वार करता है, इसका जवाब भारत निष्क्रियता से देता है।

[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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