नक्सलवाद एक बार फिर चर्चा में है। राहत की बात यह है कि इस बार चर्चा के केंद्र में नक्सलियों की कोई वारदात नहीं, बल्कि सरकार की सक्रियता है। निश्चित रूप से यह सरकारी तंत्र की सक्रियता का ही नतीजा है कि नवीनतम रिपोटरें के अनुसार नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र घटा है और उन जगहों का भी पता चल चुका है जहां से इन्हें प्रशिक्षण आदि मिल रहा है। नक्सलियों का प्रभाव 2012 में 83 जिलों में फैला हुआ था, जो 2013 में 76 जिलों तक सीमित रह गया और अब यह केवल 59 जिलों तक सिमट गया है। ऐसा नहीं है कि यह सब रातों-रात हो गया है। वास्तव में सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों की लंबे समय से की जा रही है मेहनत का नतीजा है। हालांकि इस बीच कुछ ऐसे क्षेत्रों में भी इनका असर फैलने की खबर है, जहां पहले इनकी कोई सुगबुगाहट नहीं रही है। यह चिंता का विषय है। नक्सलवाद बढ़ने न पाए, इसके लिए जरूरी है कि कुछ ठोस उपाय किए जाएं।

नक्सलवाद अपनी प्रकृति और तौर-तरीकों में आतंकवादियों के दूसरे गुटों से बहुत भिन्न है। यह प्रत्यक्ष रूप से किसी जाति या संप्रदाय की बात नहीं करता। वैचारिक तौर पर नक्सली केवल अमीरी-गरीबी की बात करते हैं। इन्हें अपने समर्थन के लिए आधार जुटाने में जाति-समुदाय आदि के आधार पर पहचान करने की कोई जरूरत नहीं होती है। कहीं भी एक छोटा सा आधार मिल जाने पर आगे का काम ये केवल हथियारों के बल पर कर लेते हैं। प्रभावित क्षेत्रों में ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो पहले तो इनकी वैचारिक आधार वाली बातों के झांसे में आकर इनके साथ हो गए, लेकिन बाद में कई तरह से शोषण और उत्पीड़न के शिकार होने के बाद जैसे-तैसे उनके चंगुल से निकल भागे। इन युवाओं में भी कई तो बीच रास्ते में ही इनके शिकार होकर जीवन से हाथ धो बैठे और जो बचे वे किसी तरह छिप कर जी रहे हैं। उनके आसपास के युवा उनसे सबक लेकर नक्सलियों की तरफ रुख करना मुनासिब नहीं समझते, लेकिन तब क्या करें जब उन्हें जबरिया नक्सली गुटों में शामिल कर लिया जाता हो? ऐसा एक-दो बार नहीं, दर्जनों बार हुआ है। नक्सलियों द्वारा अपने प्रभाव वाले सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब और युवा लड़के-लड़कियों को बंदूक के जोर से अपने गुटों में शामिल करने की सैकड़ों घटनाएं हो चुकी हैं। एक बार गुट में शामिल हो गए लड़के-लड़कियों का कई तरह से शोषण और उत्पीड़न होता है, बल्कि गुट छोड़कर भागने की कोशिश करने पर उस नौजवान व उसके पूरे परिवार को ही खत्म कर देना इनके लिए आम बात है। इसलिए जहां लोग इनके चंगुल में फंस चुके हैं, उन जगहों पर तो अधिकतर लोग अब इनसे बचने लगे हैं, लेकिन जिन जगहों पर लोग इनकी असलियत नहीं जानते, वहां अभी भी लोग इनके झांसे में आ ही जाते हैं। केरल और कर्नाटक में भी अब इनकी धमक सुनी जाने लगी है। जब तक लोग इनकी असलियत समझ सकेंगे, तब तक देर हो चुकी होगी और ये उन जगहों पर अपने पैर पसार चुकेहोंगे।

देश के नए क्षेत्रों में नक्सलवादी अपने पैर न पसार सकें, इसके लिए जरूरी है कि ठोस और कारगर उपाय किए जाएं। गौर करने की बात है कि इनके सबसे आसान शिकार गरीब लोग हैं। गरीबी की हमारे देश में क्या स्थिति है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां 28 रुपये प्रतिदिन तक कमाई को उस समय गरीबी का आधार माना जाता है जब 20 रुपये किलो आलू बिक रहा होता है। सवाल उठाए जाने पर जिम्मेदार लोग यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि यहां पांच रुपये में भर पेट भोजन मिल जाता है। संसद की कैंटीन के अलावा और कौन सी जगह है जहां पांच रुपये में भर पेट भोजन मिल जाता है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। सरकार 'गरीबी रेखा से नीचे' वाले लोगों के लिए अलग राशन कार्ड बांटकर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती है। यह जानने की जहमत भी कोई नहीं उठाना चाहता कि यहां राशन की दुकानें साल में कितने दिन खुलती हैं और अगर खुलती भी हैं तो वहां मिलता क्या है। यह स्थिति शहरों में इसलिए चल जाती है, क्योंकि वहां पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था होती है। लेकिन सुदूर गांवों में, जहां बीस मील दूर तक पुलिस चौकी भी नहीं होती, वहां स्थितियां नक्सलियों के लिए खाद का काम करती हैं। खासकर उन अशिक्षित लोगों के बीच जिनके लिए सही-गलत की ठीक-ठीक पहचान करना भी मुश्किल होता है। देश का आम आदमी लगभग यह मान चुका है कि कमजोर लोगों के अधिकार केवल किताबों में होते हैं, क्योंकि अब अराजक तत्वों और दबंगों को न तो कमजोरों पर अत्याचार करने तथा उनका हक मारने में कोई शर्म आती है और न हमारी व्यवस्था इसके लिए कुछ करती ही है। देश भर में बढ़ते अपराधों का तो यह बड़ा कारण है ही, यही स्थितियां नक्सलियों के लिए भी खाद-पानी का काम करती हैं। यह स्थिति हमें भयावह हताशा और अराजकता की ओर ले जा रही है।

अराजकता की इस स्थिति को बढ़ने से रोका जा सके, इसके लिए जरूरी है कि कानून एवं व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए। पिछले दिनों सरकार बदलने के साथ ही लोगों में बड़ी उम्मीद जगी है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही देश भर में लोग यह सोचने लगे हैं कि देश अराजकता की इस स्थिति से उबरेगा। शुरुआती दौर में मोदी ने कामकाज की अपनी जो शैली दिखाई है उससे उम्मीद भी बनती है। लोग अब पहले जैसी सोच से ग्रस्त नहीं हैं। वे अब इसे लाइलाज नहीं मानते, बल्कि यह सोचने लगे हैं कि इसका एक न एक दिन इलाज होगा। निश्चित रूप से सरकार को इसके लिए समय चाहिए, लेकिन उसे यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि यह सब सुरक्षा बलों के भरोसे होने वाला नहीं है। सच तो यह है कि इसके लिए देश में व्याप्त अराजकता मिटाकर कानून एवं व्यवस्था दुरुस्त करनी होगी। इसका असली इलाज गरीबी और बेरोजगारी के इलाज में निहित है, जिसकी बुनियादी जरूरत संतुलित विकास है। यह कहने की जरूरत नहीं कि नई सरकार विकास के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन यह विकास संतुलित हो और तेजी से हो, यह भी इसे सुनिश्चित करना होगा।

[लेखक निशिकान्त ठाकुर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]