संस्कार शब्द संस्कृत भाषा की 'कृ' धातु से बना है। संस्कार का सामान्य अर्थ है-संपूर्ण करना, संशोधित करना और संवारना। संस्कार व्यक्ति या वस्तु को पात्रता प्रदान करता है। संस्कार व्यक्ति को पूर्ण करते हैं, तो संस्कृति समाज को पूरित करती है, संवारती है। संस्कार अपने-आप में अमूर्त होते हैं। ये व्यक्ति के आचरण से झलकते हैं। चरित्र निर्माण में धर्म, संस्कार व संस्कृति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संस्कार दैनिक शक्ति और आत्मबल है। यह भौतिक सुखों से ऊपर उठकर विश्वास और आस्था द्वारा किसी अलौकिक आनंद की सुखद अनुभूति कराते हैं। आस्था संस्कारों की अमर और अतुलनीय बेल है। जिस मस्तिष्क में मनुष्य अच्छे-बुरे की पहचान करता है, वहीं से संस्कारों की खोज उसे श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा देती है। मानवीय मूल्यों से उपजे संस्कार मनुष्य को आदर्श और चरित्रवान बनाते हैं। मूल्यों की जड़ व्यक्ति में होती है, इनका सीधा संबंध अंत:करण से होता है। नैतिक मूल्य समाज की आत्मा हंै। संस्कारों की उपजाऊ भूमि पर लोक कल्याण और आलोक प्रप्ति की कृषि की जाती है। इसलिए हमारे जीवन को सुदृढ़ और साज-सज्जायुक्त बनाने के लिए संस्कारों की भूमिका महत्वपूर्ण है। जीवन संस्कारों की देन है। उत्तम संस्कारों से श्रेष्ठ संस्कृत का स्वरूप निर्मित होता है। लकड़ी, पत्थर और विभिन्न प्रकार की अनेक भौतिक वस्तुओं का विविध संस्कारों द्वारा शोधन करने के बाद ही मनुष्य उन्हें अनेक प्रकार से उपयोगी बनाता है। जबकि संस्कृत मानव का समग्र संस्कार कर उसे सुसंस्कृत बनाती है।

निष्कर्षत: मनुष्य उत्तम संस्कारों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सामथ्र्य अर्जित कर सकता है। हमारे शास्त्र और संतजन कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आने वाले अंतहीन कष्टों, तनावों और दुखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए जीवन के शाश्वत सत्य अध्यात्मपथ पर संस्कारयुक्त होकर चलना ही श्रेयस्कर होता है। संस्कारों का परिपालन हमें ऊर्जान्वित कर सत्यमार्ग की ओर प्रेरित करता है।

[पूजा दीक्षित]