विश्व के मनीषियों और संतों ने प्रभु के सुमिरन पर विशेष बल दिया है। इसका अर्थ प्राय: हम परमात्मा के नाम को बार-बार दोहराने से लगाते हैं। परिणामस्वरूप कोई राम-राम दोहराता है, कोई कुछ और। आशय यह कि हम इस पुनरुक्ति को कंठ तक सीमित करके सोचते हैं कि हमें परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसी सोच भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी साबित नहीं होगी। कारण यह कि तब हममें और तोते में कोई फर्क नहींरह जाएगा। इस संदर्भ में प्रश्न यह उठता है कि कबीर और नानक जैसे मनीषी भी सुमिरन पर विशेष बल क्यों देते हैं? हमने कभी सोचा है? वास्तव में सुमिरन शब्द की उत्पत्ति स्मरण शब्द से हुई है। एक प्रकार से सुमिरन, स्मरण का अपभ्रंश ही है और स्मरण का अर्थ है-याद करना। आशय यह है कि जो हमारे पास है ही, किंतु परिस्थितिवश हमें उसकी स्मृति नहीं रही, उसके प्रति हमें बोध हो जाए, उसकी याद आ जाए, तो समझें स्मरण पूरा हुआ। किसकी याद हमें आ जाए। किसको हम भूले हुए हैं। सीधी बात है कि परमात्मा को, स्वयं को ही हम भूले हुए हैं। परमात्मा भीतर निहित है। हम उसे बाहर खोजते हैं, जबकि बाहरी दुनिया में उसकी अनुभूति हो ही नहींसकती। सच यह है कि परमात्मा की अनुभूति ध्यान के जरिए हो सकती है। उस परम शक्ति को अंतर्मन में तलाशें।

परमात्मा को पाना कदाचित इसीलिए कठिन है कि उसे हमने खोया ही नहीं। खोया होता तो पा भी लेते। जो चीज जितने अधिक समय से हमें मिली हुई होती है, उसके प्रति हम उतने ही अधिक विस्मरण से भर जाते हैं। हमारी दृष्टि उसी पर अटकी हुई होती है जो हमें नहीं मिली होती। यही कारण है कि सदा-सदा से प्राप्त परमात्मा की ओर हम ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। 'राम-राम ' की रट यूं भीतर उतर जाए कि हमें परमात्मा का स्मरण आ जाए। यानी हम स्वयं की स्वयं से पहचान कराने में सफल हो जाएं तो समझें कि सुमिरन पूरा हुआ। इसके अलावा सुमिरन का कोई अर्थ नहीं। सुमिरन पर बल देने का यही अर्थ स्वाभाविक व सार्थक भी है। सभी नाम परमात्मा के ही हैं। किसी एक का नाम रहते, स्मरण करते हुए स्मरण रूपी लौ अंतर्मन में उतर जाए तो हमें परमात्मा की प्राप्ति यानी अमृत उपलब्ध हो जाए। इसी बोध को जगाने में जो हमारी मदद करे वही सच्चा गुरु या सद्गुरु है।

[अजय गोंडवी]