विश्व अर्थव्यवस्था के मंदी में प्रवेश करने के संकेत मिल रहे हैं। चीन ने अपनी मुद्रा युआन का हाल में अवमूल्यन किया है चूंकि उस देश द्वारा बनाए गए माल की विश्व बाजार में बिक्री नहीं हो रही थी। युआन का मूल्य कम होने से अमेरिकी खरीदार के लिए चीन का माल सस्ता पड़ेगा। चीन को आशा है कि उसका माल सस्ता होने से बिक्री बढ़ेगी और वह मंदी से बच सकेगा। मंडी में खरीदार न हो तो सब्जी विक्रेता द्वारा आलू के दाम घटा दिए जाते हैं। इसी प्रकार विश्व बाजार में मांग कम होने के कारण चीन द्वारा युआन के दाम कम कर दिए गए हैं। युआन के टूटने के साथ अमेरिका में भारत का माल महंगा पड़ेगा। अत: भारतीय रिजर्व बैंक ने रुपये को भी टूटने दिया है। एक सब्जी वाले द्वारा आलू के दाम घटाने पर अन्य सब्जी वालों को भी दाम कम करना पड़ता है। इसलिए भारत ने रुपये को टूटने दिया है। आने वाले समय में इस क्रम में वियतनाम, बंगलादेश और ब्राजील जैसे दूसरे देशों को भी अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना होगा।

समस्या का मूल कारण विश्व बाजार में मांग का अभाव है। इस अभाव का कारण अमेरिका तथा इंग्लैंड की प्रतिस्पर्धा शक्ति में कमी है। पचास के दशक में अमेरिका तथा इंग्लैंड में बनी शेवरले और मॉरिस गाडिय़ां भारत में बिक रही थीं। भारत में इनका उत्पादन नहीं होता था। शेवरले बनाने वाली जनरल मोटर्स द्वारा कार का ऊंचा दाम वसूल किया जा रहा था चूंकि भारत में कार बनती ही नहीं थी। न्यूजीलैंड के कीनो फल मंडी में एक ही विक्रेता के पास हों तो वह मनमाना दाम वसूल कर सकता है। इसी प्रकार अमेरिका द्वारा अपने माल के ऊंचे दाम वसूल किए जा रहे थे। इन ऊंचे मूल्यों का एक हिस्सा अमेरिकी श्रमिकों को मिल रहा था। फलस्वरूप अमेरिका में वेतन ऊंचे थे। इन ऊंचे वेतन के दम पर अमेरिकी नागरिक चीन के माल की खपत कर रहे थे।

ग्लोबलाइजेशन ने इस तस्वीर को पलट दिया है। आज भारत में निर्मित कारों का निर्यात अमेरिका और इंग्लैंड को हो रहा है। अमेरिका में मैन्यूफैक्चरिंग में कार्यरत श्रमिक बेरोजगार हो रहे हैं। उनके वेतन में कटौती की जा रही है। दो वर्ष पूर्व ओबामा सरकार ने जनरल मोटर्स के श्रमिकों को वेतन में कटौती स्वीकार करने को मना लिया था। विकसित देशों के श्रमिकों के पास भारत और चीन में बने माल को खरीदने की क्रयशक्ति नहीं है। फलस्वरूप इन देशों का माल नहीं बिक रहा है अतएव चीन को अपनी मुद्रा का दाम घटाना पड़ रहा है। वर्तमान मंदी का यह मूल कारण है। चीन के इस कदम की सफलता के आसार कम हैं चूंकि अन्य देश भी अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करेंगे। मंडी में सभी विक्रेता आलू का दाम कम कर दें तो किसी की भी बिक्री में वृद्धि नहीं होगी। दूसरा कारण है कि क्रयशक्ति के अभाव के कारण अमेरिकी खरीदार चीन का माल खरीदने में असमर्थ हैं। जेब में पैसा न हो तो शोकेस में टंगे कपड़े के मूल्य में गिरावट का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

विकसित देशों की यह स्थिति 2008 के संकट के पूर्व पैदा हो गई थी। इस बीमारी को कुछ दिनों के लिए दबा दिया गया था जैसे पेन किलर देकर रोगी के दर्द को भुला दिया जाता है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक ने 2008 के बाद भारी मात्रा में डॉलर छापे। अमेरिकी सरकार ने भारी मात्रा में ऋण लिए। इस धन से अमेरिकी उपभोक्ताओं को सस्ते ऋण उपलब्ध कराए गए। प्रमाण है कि क्रेडिट कार्ड धारकों द्वारा लिए गए उधार में पिछले दिनों भारी वृद्धि हुई है। आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था उस जमींदार सरीखी है जिसकी जमींदारी समाप्त हो गई है और अपने ठिकाने को गिरवी रखकर वह चीन में बने सस्ते माल की खपत कर रहा है। ऋण के बल पर खपत करने की एक सीमा है। अब यह सीमा दिखने लगी है। फलस्वरूप अब अमेरिकी क्रेडिट कार्डधारक और ऋण लेकर चीन के माल को खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए चीन का माल नहीं बिक रहा है और चीन को अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा है।

वर्तमान मंदी का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि विश्व अर्थव्यवस्थाओं में विशेषकर विकसित देशों में नई मांग पुन: उत्पन्न होती है या नहीं। इस मुद्दे का एक पक्ष है कि नए माल के आविष्कार से मांग पुन: उत्पन्न होगी। 1995 के बाद ऐसी मंदी उत्पन्न हुई थी जिसकी चपेट में पूर्वी एशिया के 'टाइगर देश आ गए थे। वह मंदी वर्ष 2000 के बाद छूमंतर हो गई। उस समय कंप्यूटर और इंटरनेट का तीव्र विकास हुआ। कंप्यूटर और मोबाइल फोन की मांग उत्पन्न हुई। दूसरी तरफ मशीनों के बढ़ते उपयोग के कारण रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। आज तमाम एटीएम लग गए हैं जहां आप मनचाहे समय पर अपने खाते से नगद निकाल सकते हैं। बैंक में कैशियर के रोजगार में कमी आई है। पूर्व में कोर्ट में कागज दाखिल करने के लिए एक दर्जन टाइपिस्ट की फौज तैयार रहती थी जो एक सप्ताह में कागज तैयार करती थी। आज फोटोकापी मशीन से यह काम दो घंटे में हो जाता है। पूर्व में सैकड़ों टैक्सी और आटो रिक्शों से लोग गंतव्य स्थान को जाते थे। आज एक मेट्रो ट्रेन से यह काम हो जाता है। इस प्रकार मांग पर दो परस्पर विरोधी प्रभाव पड़ रहे हैं। नए उत्पादों से माल की मांग बढ़ रही है जबकि ऑटोमेटिक मशीनों के कारण रोजगार घट रहे हैं और तदानुसार मांग घट रही है। इन दोनों प्रभावों में नए उत्पादों का आविष्कार अनिश्चित रहेगा जबकि ऑटोमेटिक मशीनों के कारण रोजगार का घटना निश्चित रहेगा। वर्तमान में मोबाइल सरीखे नए आविष्कार नहीं दिख रहे हैं इसलिए मेरे आकलन में मंदी का दौर गहराएगा न कि घटेगा।

इस परिदृश्य में सरकार को अपनी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। सरकार का प्रयास है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करके विश्व बाजार के लिए भारत में माल का उत्पादन किया जाए। यह सफल नहीं होगा। इस प्रयास की सफलता में संदेह इसलिए है कि जब मंडी में खरीदार नहीं होता तो किसान आलू की बुआई नहीं करता है। इसी क्रम में विश्व बाजार में मांग के अभाव में बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में बड़ा निवेश नहीं करेंगी। इक्का-दुक्का कंपनियां आ सकती हैं जिनसे बात नहीं बनेगी। इसलिए मेक इन इंडिया पर पुन: विचार करना चाहिए। सरकार को घरेलू बाजार में मांग बढ़ाने के उपाय खोजने चाहिए। विनिर्माण के क्षेत्र में रोजगार घटते जा रहे हैं जबकि भवन निर्माण तथा टीवी सीरियल जैसी सेवाओं में रोजगार बढ़ रहे हैं। इन क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में रोजगार सृजन नहीं होगा। ऑटोमेटिक मशीनों पर प्रतिबंध लगाकर रोजगार सृजन के उपायों को लागू करना चाहिए। ऐसा करने से विश्व बाजार में मंदी गहराई तो भी घरेलू बाजार में मांग बनी रहेगी और हम मंदी की मार से अपनी रक्षा कर सकेंगे।

(लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)