CAA को लेकर यूपी में हुई हिंसा थी पूर्व नियोजित, इसके पीछे थी पीएफआई की सोच
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ने यूपी के कई इलाकों में हिंसा की पटकथा लिखी थी।
अवधेश कुमार। उत्तर प्रदेश पुलिस की मानें तो नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा पीएफआइ द्वारा पूर्व नियोजित थी। अब तक पीएफआइ के दो दर्जन से ज्यादा सदस्यों को गिरफ्तार किया जा चुका है। पहले उत्तर प्रदेश पुलिस की रिपोर्ट पर संक्षेप में विचार करें और उसके बाद पीएफआइ की अखिल भारतीय भूमिका पर चर्चा। उत्तर प्रदेश पुलिस का मानना है कि कुछ जगह विरोध अचानक हुए, अनेक जगह उसकी तैयारी पहले से की गई थी, लेकिन हिंसा ज्यादातर पूर्व नियोजित और संगठित थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंसा का मुख्य केंद्र मेरठ, मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर, बिजनौर, संभल और रामपुर रहे। रामपुर की रिपोर्ट कहती है कि जहां प्रदर्शनकारी बड़ी संख्या में थे, वे स्थान अपेक्षाकृत शांत थे, जबकि जिन स्थानों पर प्रदर्शनकारी बहुत कम संख्या में थे, वहां हिंसा बड़े पैमाने पर हुई।
उदाहरण के तौर पर, रामपुर ईदगाह पर पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी थे। वहां करीब 15 हजार लोग प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन वहां से कुछ दूर स्थित हाथीखाना में सिर्फ कुछ गिने-चुने प्रदर्शनकारियों ने आगजनी, पुलिस पर गोलीबारी की और देसी बम फेंके। साफ था कि कुछ लोगों का समूह पूरी तैयारी से वहां हिंसा कर स्थिति अराजक बनाने में लगा हुआ था। अलीगढ़ पर पुलिस ने रिपोर्ट दिया है कि पीएफआइ की गतिविधियों का नया गढ़ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बन गया है। पीएफआइ ने 15 दिसंबर को एएमयू परिसर को रणक्षेत्र बना दिया और यहां दिन भर छात्रों और पुलिस के बीच हिंसा होती रही। रिपोर्ट कहती है कि हिंसा भड़काने में पीएफआइ और अन्य स्थानीय मुस्लिम संगठनों ने मुख्य भूमिका निभाई। पुलिस-छात्र संघर्ष में पीएफआइ की छात्र इकाई कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया आगे थी।
लखनऊ के बाद कानुपर भी सर्वाधिक हिंसा प्रभावित शहरों में शामिल था। 19 दिसंबर को प्रदर्शन में हिंसा नहीं हुई, लेकिन दूसरे दिन पूरी स्थिति बदली हुई थी। 20 दिसंबर को जुमे की नमाज के बाद अचानक हिंसा होने लगी। पुलिस पर हमले हुए। पुलिस रिपोर्ट बताती है कि एक समूह ऐसी स्थिति पैदा करने में सफल हुआ जिससे पुलिस के सामने बल प्रयोग के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। वीडियो फुटेज के आधार पर पीएफआइ और उससे संपर्क रखने वाले लोग पकड़े गए। प्रदेश सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल यानी एसआइटी ने बताया है कि एक स्थान के हिंसक तत्वों का दूसरे स्थान से भी संपर्क था। पुलिस ने गिरफ्तारियों के स्थानों से झंडे, पर्चे, बैनर, साहित्य, अखबार की खबरों की कटिंग और सीएए के विरोध से जुड़े पोस्टर बरामद किए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार पूछताछ के दौरान पीएफआइ के सदस्यों का मानना है कि उन्होंने सीएए का विरोध करने की रणनीति बनाई थी। इसका प्रचार प्रसार सोशल मीडिया से भी किया गया था। भीड़ को उकसाने का भी काम किया गया। लखनऊ, शामली और मेरठ से गिरफ्तार पीएफआइ कार्यकर्ताओं के पास से मोबाइल पर भड़काऊ मैसेज और ऐसे दस्तावेज बरामद किए गए हैं, जो हिंसा में लोगों को उकसाने में प्रयोग किए गए थे। वैसे उत्तर प्रदेश में इससे पहले भी अन्य स्थानों पर पीएफआइ के सदस्यों की गतिविधियां संदिग्ध रही हैं। इन स्थानांे पर पहले से दर्ज मुकदमों की भी सूची दी गई है। इसमें कहा गया है कि 2010 से यह संगठन प्रदेश के विभिन्न जिलों में सक्रिय है और माहौल खराब करने की कोशिश करता रहा है। केंद्र की मल्टी एजेंसी सेंटर ने भी बताया है कि पीएफआइ से जुड़े लोगों ने अनेक जगह बैठक की थी। असम की हिंसा में भी गिरफ्तार लोगों में पीएफआइ के सदस्य शामिल हैं।
पीएफआइ की वेबसाइट देखें तो वह स्वयं को गरीबों, पिछड़ों के लिए काम करने वाला फासीवाद के खिलाफ संगठन बताता है। वह मुस्लिम आरक्षण की भी मांग करता है। वर्ष 2006 में नेशनल डेवलेपमेंट फ्रंट के उत्तराधिकारी के रूप में इसका गठन हुआ। वर्ष 1992 में देश के कई क्षेत्रों में कट्टर इस्लामिक संगठन बनाए गए जिसमें केरल प्रमुख था। यहीं 1993 में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट बना था। सिमी पर प्रतिबंध लगने तथा एनडीएफ की गतिविधियों के खिलाफ कानूनी एजेंसियों की कार्रवाइयों को देखते हुए 2006 में पीएफआइ बना जिसमें नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट का विलय हो गया। लगभग 15 से ज्यादा संगठनों का इसमें विलय हुआ। काफी समय से यह तथ्य सामने आ रहा था कि प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया के सदस्य पीएफआइ में शामिल हो गए थे। अनके लोगों के नाम दिए गए हैं जो पहले सिमी के सदस्य थे।
पीएफआइ सिमी का ही नया अवतार है। यह आश्चर्य की बात है कि इस संगठन पर लंबे समय से गैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल होने के प्रमाण आते रहे हैं, लेकिन केंद्र ने प्रतिबंधित करने का कदम नहीं उठाया। इसके सदस्यों पर आतंकवाद विरोधी कानून गैर कानूनी गतिविधियां निरोधक कानून के तहत 100 से ज्यादा मुकदमे दर्ज हैं। राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए की एक जांच रिपोर्ट में इस संगठन पर छह आतंकवादी घटनाओं में शामिल रहने का आरोप लगाया गया है। कई राज्यों की पुलिस ने एनआइए को दिए रिपोर्ट में बताया है कि यह संगठन धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा देने के साथ आतंकवादी गतिविधियों और जबरन धर्मातरण कराने में भी संलिप्त रहा है।
मई 2019 में एनआइए ने पीएफआइ के कई केंद्रों पर छापे मारे। 21 अप्रैल 2019 को श्रीलंका में हुए आतंकवादी हमलों से इसके जुड़े होने का संदेह था। केरल का जो कसारगोड मॉड्यूल पकड़ में आया उसमें पीएफआइ के लोग थे जो आइएसआइएस से प्रभावित था। जुलाई 2016 में कासरगोड से 15 युवाओं के लापता होने के बाद मामला दर्ज किया गया था। ये आइएस में शामिल होने सीरिया एवं इराक गए थे, उसके पीछे पीएफआइ सदस्यों की भूमिका ही मानी जाती हैं। कासरगोड आइएस मॉड्यूल मामले के सिलसिले में संदिग्धों के घरों में छापेमारी के दौरान धार्मिक उपदेशों से जुड़ी डीवीडी और सीडी कैसेट्स के अलावा कट्टरपंथी इस्लामी प्रचारक जाकिर नाइक के भाषणों की कैसेटें भी मिली थीं। 2017 में केरल की पुलिस ने एनआइए को 94 गैर इस्लामिक लड़कियों के इस्लाम ग्रहण कर मुस्लिम लड़को से शादी करने यानी लव जिहाद के मामले सौंपे थे।
एनआइए ने यह माना था कि लव जिहाद के इन मामलों के पीछे पीएफआइ के चार सदस्यों की भूमिका थी और कम से कम 94 शादियों में से 23 पीएफआइ ने अपनी देखरेख में कराई थी। 2010 में पीएफआइ पर मलयाली प्रोफेसर टी जे जोसेफ का दाहिना हाथ काट डालने का आरोप लगा था। इनमें गिरफ्तार 31 तथा सजा पाने वाले 13 लोग पीएफआइ से जुड़े हुए थे। 2012 में केरल की सरकार ने उच्च न्यायालय में एक शपथपत्र में आरोप लगाया गया था कि पीएफआइ के सदस्यों का माकपा और आरएसएस से जुड़े 27 राजनीतिक हत्याओं में हाथ था। 2016 में बेंगलुरु में एक स्थानीय एबीवीपी के कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने चार लोगों को गिरफ्तार किया था जो पीएफआइ से जुड़े हुए थे। उच्चतम न्यायालय ने भी आरोप खारिज करने की इनकी याचिका खारिज कर दी गई। 2012 में पीएफआइ का नाम असम के कोकराझार दंगों में भी आया था। 13 जुलाई 2012 को देश भर में छह करोड़ मेसेज भेजे जाने की बात जांच में आई जिसमें मुसलमानों से अपनी जगह छोड़ने के लिए कहा गया था।
वास्तव में इसके बारे में सांप्रदायिकता और हिंसा के अलग-अलग अनेक घटनाएं समय-समय पर सामने आईं। इसके सदस्य पकड़े भी गए। किंतु कभी इस तरह नहीं देखा गया कि यह संगठन देशव्यापी योजना से काम करता है तथा स्थानीय घटनाएं उसका अंग है। समय आ गया है कि वर्तमान हिंसा के साथ इसकी देशव्यापी सांप्रदायिक विध्वंसक गतिविधियों को एक साथ मिलाकर देखा जाए। अगर एक आतंकवादी संगठन के रुप में इसका चरित्र उभरता है जिसकी संभावना है तो प्रतिबंधित कर इसके नेताओं को कानून के कठघरे में खड़ा किया जाए। गैर कानूनी गतिविधियां निरोधक कानून में नए संशोधन के अनुसार व्यक्तियों को भी प्रतिबंधित किया जा सकता है। भारत की गैर-जिम्मेदार और अनैतिक राजनीति में इसका विरोध होगा, इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश होगी, लेकिन यह देशहित में जरूरी माना जाएगा।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश के बाद मामला केंद्र सरकार के पाले में है। केंद्रीय गृह मंत्रलय इस संगठन की हिंसक सांप्रदायिक व आतंकी गतिविधियों में संलिप्तता के प्राप्त सबूतों की कानूनी समीक्षा के बाद ही इस संबंध में कदम उठाएगा। प्रतिबंधित करने के बाद इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। इसलिए प्रतिबंध लगाने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना होगा कि न्यायिक समीक्षा में यह टिक सके। वर्ष 2018 में इस पर झारखंड सरकार ने प्रतिबंध लगाया था, पर वहां के उच्च न्यायालय में यह नहीं टिक सका
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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