नई दिल्ली [ प्रदीप सिंह ]। स्वभाव से अलग रहने वालों की एकता की बात एक बार फिर से हो रही है। जी हां, आप सही समझे, विपक्षी एकता की नई कोशिश हो रही है और इस बार इसके सूत्रधार बने हैं मराठा नेता शरद पवार। अब तक जेपी आंदोलन को छोड़कर विपक्ष को जोड़ने में सबसे बड़ा आकर्षण रहा है सत्ता की संभावना। यह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ देशव्यापी माहौल से बनती थी। शायद यह पहली बार हो रहा है कि विपक्ष को सत्ता की संभावना कम लग रही है। उसे लग रहा है कि जीतें भले ही न, लेकिन सब एक हो जाएं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को चुनौती दे सकते हैं। यही कारण है कि विपक्षी एकता की कोशिश में पहले जैसी आतुरता और गर्मजोशी नहीं नजर आ रही। एकता की कोशिश के बहाने अपने नेतृत्व की स्वीकार्यता स्थापित करने का प्रयास ज्यादा दिख रहा है। शरद पवार की पहल पर एक फरवरी को विपक्षी दलों की बैठक हुई। बैठक से पहले एक पेंच फंसा कि राहुल गांधी के कहने पर पता नहीं कितने दलों के नेता आएं इसलिए पवार ने सोनिया गांधी से गुजारिश की कि वह आगे आएं तो बात बन सकती है। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद भले ही छोड़ दिया हो पर संप्रग अध्यक्ष तो हैं ही। लालू यादव जेल में होने के कारण नहीं आ पाए तो ममता बनर्जी ने संकेत दिया कि पहले नेतृत्व का मसला तय हो फिर वह आएंगी। शरद पवार की पहल पर हुई बैठक में आकर वह पवार के नेतृत्व को स्वीकार करने का संदेश नहीं देना चाहती थीं।

राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं

शरद पवार के नाम पर बाकी दल तो छोड़िए, खुद कांग्रेस तैयार होगी, यह मानकर चलना भी नासमझी होगी। महाराष्ट्र के बाहर पवार का कोई जनाधार नहीं है। वहां भी उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी है। पवार को लगता है कि विपक्षी खेमे में उनके कद का कोई नेता नहीं है। ममता बनर्जी की ओर से इसके खिलाफ हल्ला बोल दिया गया। बैठक के बाद तृणमूल नेता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि विपक्षी गठबंधन का नेता वह हो जो किसी राज्य का मुख्यमंत्री हो, संसदीय कार्य और केंद्र में विभिन्न विभाग संभालने का अनुभव हो और अपनी पार्टी का निर्विवाद नेता हो। इस शर्त से पवार और राहुल गांधी दोनों कट जाते हैं। इस बैठक से कांग्रेस का ही एक खेमा नाखुश है। इससे लग रहा है कि कांग्रेस का अध्यक्ष होने के बावजूद विपक्षी एकता के संचालन का सूत्र राहुल गांधी के हाथ में नहीं है। राहुल गांधी के बजाय सोनिया गांधी से बैठक की सदारत करवाकर बाकी विपक्षी दलों ने संकेत दिया कि राहुल गांधी का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है।

राहुल गांधी विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व के स्वाभाविक दावेदार हैं

शरद पवार ने विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व की दावेदारी ठोंक दी है और ममता बनर्जी अखाड़े के बाहर से खम ठोंक रही हैं, पर लाख टके का सवाल है कि कांग्रेस राहुल गांधी के अलावा किसी और के नेतृत्व में चुनाव क्यों लड़ेगी? इस कमजोर हालत में भी वह किसी भी विपक्षी दल से बहुत बड़ी पार्टी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में इतनी बुरी हार के बावजूद उसे 11 करोड़ वोट मिले थे। दरअसल छवि, अनुभव और स्वीकार्यता के मामले में राहुल गांधी के नेतृत्व के लिए नीतीश कुमार ही चुनौती थे। उनके भाजपा के साथ चले जाने के बाद राहुल गांधी किसी भी विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व के स्वाभाविक दावेदार हैं।

विपक्ष को नेता, नीति और नीयत पर खरा उतरना पडेगा

विपक्षी एकता के लिए मसला केवल नेतृत्व का ही नहीं है। ऐसे भी अवसर आए हैं जब बिना नेतृत्व के मतदाता ने सत्ता सौंप दी है, पर उसके लिए एक बुनियादी जरूरत है और वह यह कि वर्तमान सरकार के लिए लोगों के मन में इतना गुस्सा हो कि वे उसे हटाने के लिए किसी को भी लाने को तैयार हों या फिर विपक्षी जमावड़ा नेता, नीति और नीयत के मामले में इतना सशक्त हो कि मतदाता उसे मौका देना चाहे।

पीएम मोदी की विश्वसनीयता में कमी नहीं आई

विपक्ष की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि उसके तमाम प्रचार और दावों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की विश्वसनीयता में कमी नहीं आई है। लोग कई मामलों में केंद्र सरकार से असंतुष्ट भले हों पर मोदी के विकल्प के बारे में सोच रहे हों, ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा है। हाल में हुए दो देशव्यापी सर्वेक्षणों से भी इसकी पुष्टि होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक तो गुजरात में आज लोकसभा चुनाव हों तो भाजपा को हाल में हुए विधानसभा चुनावों से पांच फीसदी ज्यादा (54 फीसदी) और कांग्रेस को सात फीसदी कम (35 फीसदी) वोट मिलेंगे। गुजरात में राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। वह प्रदर्शन विधानसभा चुनावों के बाद बीस दिन भी नहीं टिक सका।

 सरकार और देश के लिए इस समय सबसे बड़ी चिंता किसानों की खस्ता हालत है

पिछले करीब चार साल से विपक्ष की लगातार कोशिश रही है कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को अमीरों-उद्योगपतियों की सरकार साबित किया जाए, पर उन्हें अभी तक कामयाबी नहीं मिली है। उलटे हुआ यह है कि जैसे-जैसे विपक्ष के हमले बढ़ते गए, सरकार और गरीब नवाज होती गई। 2018-19 के केंद्रीय बजट ने विपक्ष के सारे हथियारों को भोथरा कर दिया है। सरकार और देश के लिए इस समय सबसे बड़ी चिंता किसानों की खस्ता हालत है। बजट में कृषि और ग्राणीण क्षेत्र के लिए विभिन्न योजनाओं के मद में साढ़े चौदह लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। इसके अलावा दस करोड़ परिवारों को पांच लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा कवर देने की घोषित योजना ठीक से लागू हो गई तो गेम चेंजर साबित हो सकती है। बजट का असर यह हुआ कि वित्त मंत्री के बजट भाषण के बाद राहुल गांधी से संसद परिसर में मीडिया ने प्रतिक्रिया जाननी चाही तो वह कुछ बोले ही नहीं।

जो काम 2004 में सोनिया गांधी ने किया था, क्या उसे राहुल गांधी 2019 में कर पाएंगे?

विपक्षी एकता के लिए इस समय नेतृत्व के मसले से भी बड़ी समस्या है वैकल्पिक राष्ट्रीय विमर्श की। सिर्फ नकारात्मकता सत्ता का दावा करने वाले किसी गठबंधन या पार्टी का एजेंडा नहीं हो सकती। कांग्रेस अगर गंभीरता से मोदी और भाजपा को चुनौती देना चाहती है तो उसे एक व्यापक सकारात्मक एजेंडा लेकर आना होगा। इसके अलावा उसे सोचना होगा कि पश्चिम बंगाल में ममता और मार्क्सवादी, उत्तर प्रदेश में समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, तमिलनाडु में द्रमुक या अन्नाद्रमुक या कमल हासन की नई पार्टी कैसे और किन मुद्दों पर आपस में और फिर कांग्रेस के साथ आ सकती हैं। अभी तो हाल यह है कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश तो छोड़िए, मुंबई में शरद पवार और कांग्रेस को अपनी ताकत दिखा रहे हैं। माकपा में कांग्रेस के साथ जाने के मुद्दे पर दो फाड़ है। आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के बजाय भाजपा के साथ जाने के ज्यादा इच्छुक हैं। विपक्षी एकता के रास्ते की हमेशा से मुश्किल नेताओं का अहं रहा है। कोई अपने को किसी से कम समझने के लिए तैयार नहीं है। अब सवाल है कि जो काम 2004 में सोनिया गांधी ने किया था, क्या उसे राहुल गांधी 2019 में कर पाएंगे?

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]