शत-प्रतिशत का पैमाना
पिछले कुछ वषों से पूरा देश सुन रहा है दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की ऊंची कट-ऑफ के बारे में। हर वर्ष ऊंची होती कट-ऑफ अब शत प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। पहले एक-दो कॉलिज में कट-ऑफ 100 के करीब रहती थी अब कई कॉलिजों में हो गई
पिछले कुछ वषों से पूरा देश सुन रहा है दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की ऊंची कट-ऑफ के बारे में। हर वर्ष ऊंची होती कट-ऑफ अब शत प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। पहले एक-दो कॉलिज में कट-ऑफ 100 के करीब रहती थी अब कई कॉलिजों में हो गई है। मान भी लें अच्छी बात है- बच्चे मेहनती, मेधावी हैं तो नंबर भी अच्छे लाएंगे, लेकिन दाखिले के बाद? क्या नंबरों की यह खुली लूट रटंतू शिक्षा को ही नहीं दर्शाती? कॉलेज में प्रतिभाओं के इस झुंड ने कोई खोज की? कोई ऐसा आविष्कार किया जिसने देश दुनिया को बदला हो? किसी बीमारी की खोज की हो, प्राकृतिक आपदा को जानने का उपकरण बनाया हो?
या सिर्फ कॉलिजों की वातानुकूलित कैंटीन, क्लासों में दो-तीन साल बिताकर और अंग्रेजी सुधारकर विदेश या बहुराष्ट्रीय कंपनियों में चले गए? देश की सिविल सेवा में भी गए तो वहां भी भ्रष्टाचार, बदतमीजी, कुशासन के अनोखे कीर्तिमान बना डाले। ऐसी ऊंची प्रतिशतता वाले छात्र जब ‘पीसा’ नाम की एक अंतरराष्ट्रीय परीक्षा में बैठे तो भारत का नंबर 76 देशों में फिसड्डी क्यों रहा? और क्यों फिसड्डी रहने के डर से भारत ने इसमें अब भाग लेना भी बंद कर दिया है? सौ में सौ लाने के डंके से हम किसको मूर्ख बना रहे हैं? क्या अंग्रेजी और अमीरी के बूते शिक्षा के नाम पर स्कूली धंधा अब कॉलिज विश्वविद्यालयों को भी अपनी चपेट में ले रहा है?1दिल्ली में दाखिले की भीड़ का यह हाल तो तब है जब पिछले दो-तीन साल में विश्वविद्यालय लगातार विवाद, धरना और बंद का शिकार रहा है।
विवादित ‘च्वाइस वेस्ट क्रेडिट सिस्टम’ (सीवीसीएस) के बावजूद एक सीट के दाखिले के लिए लगभग दस उम्मीदवारों ने फार्म भरे हैं। इनमें आधे से ज्यादा उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर पूर्व राज्यों के हैं। जाहिर है शिक्षा पूरे उत्तर भारत में उजड़ चुकी है। प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब ‘अंतिम उदारवादी’ में ‘महात्मा गांधी की मार्कशीट’ नाम का बहुत रोचक लेख है। इस लेख के अनुसार स्कूल में महात्मा गांधी की उपस्थिति बहुत खराब रहती थी और वार्षिक परीक्षा में 45 से 55 प्रतिशत के बीच ही अंक मिलते थे। मैटिक परीक्षा में शामिल 3067 बच्चों में 799 उत्तीर्ण हुए जिसमें गांधीजी 404 वें स्थान पर रहे और उन्हें 40 प्रतिशत अंक मिले थे। क्या दुनिया ने कभी गांधीजी की मार्कशीट या डिग्री देखने की हिम्मत की! आज के मां-बाप तो आत्महत्या ही कर लें 40 प्रतिशत अंकों को देखकर।
95 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे के पिता ऐसे उदास से थे जैसे घर लुट गया हो। स्वाभाविक है कि बच्चा और भी परेशान कि मेरे इस विषय में दो नंबर कैसे कट गए? अब दाखिला कैसे मिलेगा? दिल्ली ने पिछले वषों में प्रदूषण, कानून व्यवस्था, दुर्घटना जैसे केई पैमानों पर बदनामी कमाई है। अब उसमें यह भी जुड़ रहा है कि यहां के कई कॉलिजों में दाखिला तभी मिलता है जब आपको 99 या शत प्रतिशत अंक मिलें। ऐसे अवसरों पर याद आते हैं दुनिया को बदल देने वाले वैज्ञानिकों, लेखकों के बचपन और स्कूली दिन। आइंस्टाइन 20वीं सदी के महानतम वैज्ञानिक हैं, लेकिन स्कूल में थे निपट भौंदू। जैसे-तैसे विश्वविद्यालय में उनका दाखिला हुआ और आगे चल कर प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर भी हुए और नोबेल पुरस्कार भी मिला। महान जीव वैज्ञानिक और विकासवाद के जनक डॉर्विन को कभी किसी स्कूल ने दाखिला नहीं दिया। और तो और प्रोफेसर यशपाल जब अमेरिका पढ़ने गए तो प्रवेश परीक्षा में असफल रहे।
भला हो अमेरिकी विश्वविद्यालयों का जिसने एक महीने बाद प्रोफेसर यशपाल को फिर से मौका दिया। आज पूरा देश प्रोफेसर यशपाल के योगदान से परिचित है। आखिर इन सभी उदाहरणों से हम क्यों नहीं सीखते? पूरी दुनिया शिक्षा की बेहतरी की तरफ बढ़ रही है और इस बेहतरी में सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने का, बच्चों को तनावमुक्त रखने का। शिक्षक और स्कूल जैसी संस्थाओं में भी बदलाव आए हैं। भारतीय संदर्भ में प्रसिद्ध शिक्षाविद ‘जॉन टेलर गेट्टो’ का सहारा लिया जाए तो भारतीय स्कूल-कॉलेज मूढ़ बनाने के कारखाने में तब्दील हो रहे हैं। दुनिया के कई आश्चर्य भारतीय शिक्षा के परिदृश्य में रेखांकित किए जा सकते हैं। एक तरफ सौ में से सौ नंबर लेने वालों की संख्या सैकड़ों-हजारो में है तो दूसरी तरफ ऐसे भी हजारों, लाखों में हैं जो हैं तो आठवीं, दसवीं पास, लेकिन दूसरी-तीसरी की किताब भी नहीं पढ़ सकते। इससे भी बड़ा आश्चर्य कि वे मंत्री हैं, कानून बनाते हैं, लेकिन हर कानून तोड़कर उनके पास फर्जी डिग्रियां हैं।
अफसोस यह है कि इस परिदृश्य से दुनिया भर का यकीन भारतीय विश्वविद्यालयों से हट गया है। जगतगुरु कहलाने वाले देश के नौजवान पढ़ने की ललक में दुनिया भर में मारे-मारे फिर रहे हैं। एक तरफ दिल्ली में दाखिला नहीं मिलता तो दिल्ली के करीब, नोपिछले कुछ वषों से पूरा देश सुन रहा है दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की ऊंची कट-ऑफ के बारे में। हर वर्ष ऊंची होती कट-ऑफ अब शत प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। पहले एक-दो कॉलिज में कट-ऑफ 100 के करीब रहती थी अब कई कॉलिजों में हो गई है। मान भी लें अच्छी बात है- बच्चे मेहनती, मेधावी हैं तो नंबर भी अच्छे लाएंगे, लेकिन दाखिले के बाद? क्या नंबरों की यह खुली लूट रटंतू शिक्षा को ही नहीं दर्शाती?
कॉलेज में प्रतिभाओं के इस झुंड ने कोई खोज की? कोई ऐसा आविष्कार किया जिसने देश दुनिया को बदला हो? किसी बीमारी की खोज की हो, प्राकृतिक आपदा को जानने का उपकरण बनाया हो? या सिर्फ कॉलिजों की वातानुकूलित कैंटीन, क्लासों में दो-तीन साल बिताकर और अंग्रेजी सुधारकर विदेश या बहुराष्ट्रीय कंपनियों में चले गए? देश की सिविल सेवा में भी गए तो वहां भी भ्रष्टाचार, बदतमीजी, कुशासन के अनोखे कीर्तिमान बना डाले। ऐसी ऊंची प्रतिशतता वाले छात्र जब ‘पीसा’ नाम की एक अंतरराष्ट्रीय परीक्षा में बैठे तो भारत का नंबर 76 देशों में फिसड्डी क्यों रहा? और क्यों फिसड्डी रहने के डर से भारत ने इसमें अब भाग लेना भी बंद कर दिया है? सौ में सौ लाने के डंके से हम किसको मूर्ख बना रहे हैं? क्या अंग्रेजी और अमीरी के बूते शिक्षा के नाम पर स्कूली धंधा अब कॉलिज विश्वविद्यालयों को भी अपनी चपेट में ले रहा है?
दिल्ली में दाखिले की भीड़ का यह हाल तो तब है जब पिछले दो-तीन साल में विश्वविद्यालय लगातार विवाद, धरना और बंद का शिकार रहा है। विवादित ‘च्वाइस वेस्ट क्रेडिट सिस्टम’ (सीवीसीएस) के बावजूद एक सीट के दाखिले के लिए लगभग दस उम्मीदवारों ने फार्म भरे हैं। इनमें आधे से ज्यादा उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर पूर्व राज्यों के हैं। जाहिर है शिक्षा पूरे उत्तर भारत में उजड़ चुकी है। प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब ‘अंतिम उदारवादी’ में ‘महात्मा गांधी की मार्कशीट’ नाम का बहुत रोचक लेख है। इस लेख के अनुसार स्कूल में महात्मा गांधी की उपस्थिति बहुत खराब रहती थी और वार्षिक परीक्षा में 45 से 55 प्रतिशत के बीच ही अंक मिलते थे। मैटिक परीक्षा में शामिल 3067 बच्चों में 799 उत्तीर्ण हुए जिसमें गांधीजी 404 वें स्थान पर रहे और उन्हें 40 प्रतिशत अंक मिले थे। क्या दुनिया ने कभी गांधीजी की मार्कशीट या डिग्री देखने की हिम्मत की! आज के मां-बाप तो आत्महत्या ही कर लें 40 प्रतिशत अंकों को देखकर। 95 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे के पिता ऐसे उदास से थे जैसे घर लुट गया हो।
स्वाभाविक है कि बच्चा और भी परेशान कि मेरे इस विषय में दो नंबर कैसे कट गए? अब दाखिला कैसे मिलेगा? दिल्ली ने पिछले वषों में प्रदूषण, कानून व्यवस्था, दुर्घटना जैसे केई पैमानों पर बदनामी कमाई है। अब उसमें यह भी जुड़ रहा है कि यहां के कई कॉलिजों में दाखिला तभी मिलता है जब आपको 99 या शत प्रतिशत अंक मिलें। ऐसे अवसरों पर याद आते हैं दुनिया को बदल देने वाले वैज्ञानिकों, लेखकों के बचपन और स्कूली दिन। आइंस्टाइन 20वीं सदी के महानतम वैज्ञानिक हैं, लेकिन स्कूल में थे निपट भौंदू। जैसे-तैसे विश्वविद्यालय में उनका दाखिला हुआ और आगे चल कर प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर भी हुए और नोबेल पुरस्कार भी मिला।
महान जीव वैज्ञानिक और विकासवाद के जनक डॉर्विन को कभी किसी स्कूल ने दाखिला नहीं दिया। और तो और प्रोफेसर यशपाल जब अमेरिका पढ़ने गए तो प्रवेश परीक्षा में असफल रहे। भला हो अमेरिकी विश्वविद्यालयों का जिसने एक महीने बाद प्रोफेसर यशपाल को फिर से मौका दिया। आज पूरा देश प्रोफेसर यशपाल के योगदान से परिचित है। आखिर इन सभी उदाहरणों से हम क्यों नहीं सीखते? पूरी दुनिया शिक्षा की बेहतरी की तरफ बढ़ रही है और इस बेहतरी में सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने का, बच्चों को तनावमुक्त रखने का। शिक्षक और स्कूल जैसी संस्थाओं में भी बदलाव आए हैं। भारतीय संदर्भ में प्रसिद्ध शिक्षाविद ‘जॉन टेलर गेट्टो’ का सहारा लिया जाए तो भारतीय स्कूल-कॉलेज मूढ़ बनाने के कारखाने में तब्दील हो रहे हैं। दुनिया के कई आश्चर्य भारतीय शिक्षा के परिदृश्य में रेखांकित किए जा सकते हैं। एक तरफ सौ में से सौ नंबर लेने वालों की संख्या सैकड़ों-हजारो में है तो दूसरी तरफ ऐसे भी हजारों, लाखों में हैं जो हैं तो आठवीं, दसवीं पास, लेकिन दूसरी-तीसरी की किताब भी नहीं पढ़ सकते। इससे भी बड़ा आश्चर्य कि वे मंत्री हैं, कानून बनाते हैं, लेकिन हर कानून तोड़कर उनके पास फर्जी डिग्रियां हैं। अफसोस यह है कि इस परिदृश्य से दुनिया भर का यकीन भारतीय विश्वविद्यालयों से हट गया है। जगतगुरु कहलाने वाले देश के नौजवान पढ़ने की ललक में दुनिया भर में मारे-मारे फिर रहे हैं।
(लेखक प्रेमपाल शर्मा वरिष्ठ स्तंभकार हैं)













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