मौसम की नई मुसीबत
चुनावी अभियान की तेजी के साथ ही कुछ बुरी खबरें भी आनी शुरू हो गई हैं। यहां मैं त्रिशंकु लोकसभा की संभावना के बारे में बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि चुनाव बाद की बात कर रहा हूं जब अपर्याप्त बारिश से हमारी समस्याओं में और इजाफा होगा। 25 फीसद संभावना सूखे की है और
चुनावी अभियान की तेजी के साथ ही कुछ बुरी खबरें भी आनी शुरू हो गई हैं। यहां मैं त्रिशंकु लोकसभा की संभावना के बारे में बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि चुनाव बाद की बात कर रहा हूं जब अपर्याप्त बारिश से हमारी समस्याओं में और इजाफा होगा। 25 फीसद संभावना सूखे की है और उत्तर-पश्चिम तथा मध्य भारत के क्षेत्रों में खराब मानसून की आशंका है। जाहिर है आने वाले दिन अधिक अंधकारपूर्ण होंगे। हालांकि भारतीय मौसम विभाग ने मानसूनी बारिश पर प्रभाव डालने वाले प्रशांत महासागरीय गर्म अल-नीनो धारा की संभावना से इन्कार किया है, लेकिन एक गैर सरकारी प्रमुख मौसम एजेंसी स्काईमेट ने आने वाले दिनों में खराब मानसून की भविष्यवाणी की है। भारतीय मौसम विभाग ने इन बातों को खारिज करते हुए इस तरह की चर्चाओं को भारतीय बाजार को प्रभावित करने के लिए अमेरिका और आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों की साजिश करार दिया है। उसका मानना है कि यह अमेरिका और आस्ट्रेलिया के हित में है कि भारतीय कृषि बाजार और शेयर बाजार नीचे गिरे। वे इस तरह कि अफवाहें इसलिए फैला रहे हैं ताकि लोग जमाखोरी शुरू कर दें और बाजार में कृत्रिम अभाव की स्थिति पैदा की जा सके। कुछ सप्ताह पूर्व भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक लक्ष्मण सिंह राठौर को कहना पड़ा कि लोग इस तरह की बातों पर ध्यान नहीं दें।
हालांकि यह भी सच है कि भारतीय मौसम विभाग इस तरह के आसन्न सूखे के संकट की भविष्यवाणी करने में कभी भी समर्थ नहीं रहा, लेकिन उसके अधिकारी जो कुछ कह रहे हैं उसमें मुझे दम नजर आता है। सामान्य से कम अच्छे मानसून की चेतावनी के बाद से ही कम वर्षा की संभावना के मद्देनजर बहुत से लोगों को व्यापारिक लाभ हुआ है। इसी का परिणाम है कि बाजार में तेजी का रुख बना और खाद्यान्न कीमतें ऊंची हुई, हालांकि उत्पादन में कोई गिरावट नहीं हुई है। 2011 में भी मैंने कुछ ऐसी ही स्थिति देखी थी जब खरीफ की खराब फसल की संभावना के चलते खाद्यान्न कीमतों में उछाल आया था। तमाम बिजनेस चैनल प्रतिदिन निवेशकों को ऐसे उत्पादों के नाम बताते रहते हैं जिनमें पैसा लगाना भविष्य के लिहाज से अधिक फायदेमंद हो सकता है।
लेकिन जब कृषि सचिव कहते हैं कि बारिश में कमी के चलते भारत सरकार बहुत चिंतित नहीं है तो भी सवाल यही है कि क्या स्काईमेट की पूर्व की भविष्यवाणियां सही रही हैं। 2012 में इसने 94 फीसद बारिश होने की भविष्यवाणी की थी और वास्तविक बारिश 93 फीसद हुई। अगले साल 2013 में इसने 103 फीसद बारिश की संभावना जताई थी, जो अनुमान से थोड़ा अधिक 106 फीसद रही। इस वर्ष यह अनुमान 94 फीसद है, जिससे कृषि उपज में कोई बहुत गिरावट नहीं आने वाली, लेकिन इतना अवश्य है कि विशाल खाद्यान्न भंडारण के लिए अनाज की उपलब्धता पर कुछ असर पड़ेगा। देश के उत्तर पश्चिम और पश्चिम मध्य हिस्से के जिन क्षेत्रों पर कमजोर मानसून का असर पड़ेगा उनमें गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य महाराष्ट्र, गोवा, कोंकण और कर्नाटक तथा तेलंगाना के हिस्से शामिल हैं।
कमजोर मानसून की भविष्यवाणी के संदर्भ में चिंता की बात यही है कि प्रशांत क्षेत्र की गर्म समुद्री धारा अल-नीनो के कारण आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणपूर्व एशिया और भारत के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर सूखे की समस्या का सामना करना पड़ता है और यह भी कि अल-नीनो के लक्षण मानसून के साथ ही प्रकट होते हैं। आस्ट्रेलिया, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका ने अपने यहां अल-नीनो की चेतावनी जारी कर दी है। हालांकि राहत की बात यही है कि 2013 में भी ऐसी ही चेतावनी जारी की गई थी, लेकिन भविष्यवाणी के अनुरूप प्रभाव उतना विनाशकारी नहीं रहा। 2013 में भारतीय मौसम विभाग ने सितंबर में अल-नीनो का खतरा जताया था, लेकिन हुआ सिर्फ यह कि बारिश थोड़ी कमजोर रही। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय समुद्री इलाके में अल-नीनो का प्रभाव हर बार बहुत विनाशकारी नहीं रहा है। 2009 में मौसम विभाग ने औसतन 96 फीसद बारिश की भविष्यवाणी की थी, लेकिन तब देश को हाल के वर्षो के सबसे बड़े सूखे का सामना करना पड़ा। वास्तविक वर्षा में 23 फीसद की कमी होने पर ही कृषि उत्पादन में गिरावट आती है। इससे धान की फसल में 12 फीसद की गिरावट आती है। 2012 में 96 फीसद के आसपास बारिश की संभावना जताई गई थी, लेकिन कृषि योग्य भूमि के 70 फीसद क्षेत्रों में बारिश में देरी हुई, लेकिन इसका प्रभाव 2009 के जैसा नहीं रहा। यह जानना रोचक है कि इस वर्ष भी स्काईमेट ने 94 फीसद औसत बारिश की भविष्यवाणी की है, जो थोड़ी अधिक चिंता की बात है।
मौसम की भूमिका का सर्वाधिक खराब असर मध्य भारत के किसानों पर पड़ता है। मार्च के महीने में असामान्य बारिश और ओलावृष्टि के कारण महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में खड़ी फसलों को बहुत नुकसान हुआ। ओलावृष्टि से मध्य प्रदेश में 24 लाख हेक्टेयर और महाराष्ट्र में 18 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र प्रभावित हुआ। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु को भी काफी नुकसान हुआ। केंद्र ने मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र को 1351 करोड़ रुपये की राशि मदद के तौर पर मुहैया कराई। कमजोर मानसून की चेतावनी से लाखों की संख्या में किसानों के समक्ष जीवन-मरण का संकट पैदा हो सकता है। पहले से ही कृषि दबाव की स्थिति में है और ऐसे में यदि देश के कुछ हिस्सों में सूखा पड़ता है तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी और कृषक समुदाय टूट जाएगा। ऐसे में मौसम आधारित प्रभावी फसल बीमा के अभाव में किसानों की स्थिति और अधिक खराब हो जाएगी।
सूखा वर्ष के रूप में 2002 और 2004 में भी वर्षा जल में क्रमश: 22 फीसद और 17 फीसद की कमी दर्ज की गई थी। सितंबर 2012 में जब मानसून में देरी हुई तो महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और राजस्थान को सूखा राज्य घोषित किया गया, परंतु बाद में अगस्त के मध्य और सिंतबर के प्रथम सप्ताह में इन क्षेत्रों में भारी वर्षा हुई। स्थिति ऐसी बनी कि जलाशयों से अतिरिक्त पानी को छोड़ना पड़ा, जिससे कई गांव और कस्बे जलमग्न हो गए। गुजरात में जगहों को खाली करने के लिए अभियान चलाना पड़ा। इससे यही प्रतीत होता है कि ग्लोबल वार्मिग के कारण जलवायु चक्र में परिवर्तन हुआ है, जिस कारण मौसम पैटर्न में भी अस्थिरता देखने को मिल रही है। देश का आर्थिक विकास कृषि पर निर्भर है। यदि मानसून की विफलता और सरकार द्वारा उठाए जाने वाले कदमों की अपर्याप्तता से कृषि का क्षेत्र प्रभावित होता है तो इसका प्रभाव समूची अर्थव्यवस्था पर देखने को मिलेगा। यह सही है कि देश की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान गिरकर 14 फीसद पहुंच गया है, लेकिन बावजूद इसके हमें नहीं भूलना चाहिए कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।
[देविंदर शर्मा, लेखक कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं]
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।