पिछले दिनों ध्रुवीकरण के बड़े खिलाड़ी के रूप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के संदर्भ में बनी धारणा उनके विरोधियों और समर्थकों, दोनों में और पुख्ता हुई है। गोवा में चुनाव अभियान की कमान मोदी के हाथ में आने के बाद उनके विरोधियों में डर सता रहा है कि अब विभाजन निश्चित है-भाजपा में विभाजन, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में दोफाड़ के साथ-साथ वह भारतीयों को एक-दूसरे के खिलाफ करने में कामयाब हो जाएंगे। मोदी का बढ़ता कद, लालकृष्ण आडवाणी के हाशिये पर चले जाने और भाजपा के नीतीश कुमार के दबाव में न आने के करीब-करीब सर्वसम्मत फैसले से यह संकेत मिलता है कि मोदी में अपने विरोधियों से पार पाने की क्षमता है।

राष्ट्रीय राजनीति के केंद्रीय मंच पर मोदी के धमाकेदार अवतरण के समग्र आकलन का अभी समय नहीं आया है। इसका आकलन चुनाव के बाद ही संभव है। हालांकि फिलहाल कुछ प्रारंभिक संकेतों का विश्लेषण करना समीचीन होगा। निश्चित तौर पर यह बात चौंकाती है कि जो राजनेता पिछले 11 साल से निंदा और मानहानि के अभियान का सामना कर रहा है वह इस महत्वपूर्ण पद पर पहुंच गया है। कोई और होता तो वह भारतीय बौद्धिक प्रतिष्ठान की बड़ी तोपों की गोलाबारी के सामने टिक न पाता, जबकि मोदी ने न केवल लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते और गुजरात को वैश्विक आर्थिक नक्शे में जगह दिलाई, बल्कि इतना समर्थन जुटाने में भी सफलता हासिल की जो उन्हें भाजपा के शीर्ष पर पहुंचा दे। क्षेत्रीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने के लिए संघर्षरत किसी भी राजनेता के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। सैद्धांतिक रूप में मोदी को इस संघर्षयात्रा में न तो अधिक मोर्चे मिलने चाहिए थे और न ही कड़े प्रतिद्वंद्वी। अधिकांश विकसित लोकतंत्रों में पार्टी नेता के चुनाव का संस्थानीकरण हो चुका है। अमेरिका में एक जटिल व्यवस्था के तहत राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार चुना जाता है। इस व्यवस्था में जनता की राय भी शामिल होती है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि उम्मीदवार को मीडिया की पड़ताल का भी सामना करना पड़ता है। इंग्लैंड में भी दोनों प्रमुख दल प्रक्रिया का संस्थानीकरण कर चुके हैं, जहां राजनीतिक दल के तमाम हिस्सेदार नेता के चुनाव में अहम भूमिका निभाते हैं। भारतीय राजनीतिक दलों को भी मतदाताओं के मूड को भांपने के लिए इसी प्रकार की व्यवस्था अपनानी चाहिए, किंतु उत्तराधिकारी की योजना में वे निश्चित तौर पर अलोकतांत्रिक हैं। हमेशा से ऐसा नहीं होता रहा है। 1920 के बाद कांग्रेस में ऐसा ढांचा विकसित किया गया जिसमें जमीन से जुड़े कार्यकर्ता को भी नेता के चुनाव में भागीदारी का मौका मिलता था। इसी कारण दल के एक छाते के नीचे विभिन्न अभिरुचियों के लोगों ने आश्रय लिया। उसी कांग्रेस में अब परिवारवाद का बोलबाला है।

भाजपा में बिल्कुल अलग राजनीतिक परंपरा रही है, किंतु पिछले दो दशकों में भाजपा का चरित्र भी बदला है। आज की भाजपा और भारतीय जनसंघ में बड़ा अंतर है। यह सही है कि नागपुर का अब भी पार्टी में सबसे अधिक प्रभाव है, किंतु इसे संभावित भाजपा मतदाताओं की इच्छा-भावनाओं की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए। जहां तक मोदी का संबंध है तो 2010-11 तक संघ से उनके संबंध मधुर नहीं थे। यद्यपि उन्होंने एक पूर्णकालिक प्रचारक से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का अद्भुत कारनामा जरूर किया था, किंतु नागपुर में उनकी छवि अत्यधिक व्यक्तिवादी, विवादप्रिय और मनमर्जी चलाने वाले की बनी रही। सामान्य परिस्थितियों में ऐसा कोई व्यक्ति संघ के सामने नहीं टिक पाता, लेकिन जैसा कि हालिया घटनाओं से जाहिर हो गया है कि संघ को अपना रुख बदलना पड़ा।

नरेंद्र मोदी की अटल बिहारी वाजपेयी से तुलना में कोई तुक नहीं है। दोनों का स्वभाव बिल्कुल अलग तरह का था। वाजपेयी ब्राह्मणवादी विचारों के प्रभाव में थे, जबकि दूसरी तरफ मोदी का इस पर अधिक यकीन नहीं है कि नैतिकता के अलग-अलग व्यक्तियों या समूहों के लिए अलग-अलग मायने होते हैं। किंतु जहां तक संघ से व्यवहार का सवाल है, दोनों का दृष्टिकोण समान है। हालात की मांग के अनुसार दोनों ने ही ना कहने में गुरेज नहीं किया। इसका कारण यह है कि दोनों लोकप्रियता के घोड़े पर सवार रहे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों ही जानते थे कि कब असहमति जाहिर नहीं करनी है और कब पीछे हटना है। और एक बड़ी समानता यह है कि दोनों ही कॉर्पोरेट जगत के चहेते साबित हुए। तुलना यहीं खत्म नहीं हो जाती। वाजपेयी और मोदी, दोनों अनुभव के साथ-साथ परिपक्व हुए हैं। वाजपेयी जनसंघ और भाजपा के नेता तब बने जब हिंदू राष्ट्रवाद का अधिक जोर नहीं था। वाजपेयी को अहसास था कि भाजपा को गैर-कांग्रेसवाद को अपना प्रमुख औजार बनाना होगा और इस आधार पर अन्य दलों को खुद से जोड़ना होगा। 1996 में 13 दिन की सरकार के बाद अटल और आडवाणी ने बड़ी होशियारी से विचार किया कि अंतिम बाधाएं पार करने के लिए पार्टी को विफल संयुक्त मोर्चा सरकारों के खिलाफ जनता के असंतोष को हवा देनी होगी। इसके लिए भाजपा को अपने हथियारों की धार को भोथरा करना पड़ा। इनमें अनुच्छेद 370 को भंग करने, समान नागरिक संहिता लागू करने और अयोध्या में राम मंदिर का तत्काल निर्माण करने जैसी मांगें शामिल हैं। मोदी के अनुभव का धरातल अलग है। 2002 में उन्हें दंगों के कटु अनुभव से गुजरना पड़ा, जहां उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता स्पष्ट नजर आई। इसके बाद वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राह पकड़ सकते थे, किंतु ऐसा करने के बजाय उन्होंने गुजरात गौरव का झंडा उठा लिया। 2002 में जीत के बाद उन्होंने क्षेत्रीय अस्मिता की अवधारणा का विस्तार करते हुए इसमें तीव्र आर्थिक विकास भी शामिल कर लिया। आज इस विचार का विस्तार पूरे देश में करने का कार्यक्रम है।

वाजपेयी विनम्र थे, जबकि दूसरी तरफ मोदी कटु और यहां तक कि कर्कश भी हैं। वाजपेयी ने बिना अधिक शोरशराबे के अपना आर्थिक एजेंडा लागू किया, जबकि मोदी के समय में हालात अलग हैं। आजकल लोग गुस्से से भरे हैं। एक तो इसलिए, क्योंकि कांग्रेस ने एक दशक बर्बाद कर दिया है। इसके अलावा इच्छाओं और अवसरों के बीच असंगति झेल रहे युवावर्ग का आक्रोश भी उभर रहा है। अगले आम चुनाव में कोई एक मुद्दा ही नहीं होगा। हालांकि विरोधियों की मेहरबानी से मोदी उसी तरह केंद्रीय बिंदु बन गए हैं, जैसे 1971, 1977 और 1980 में इंदिरा गांधी बन गई थीं। मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री बन पाएं या न बन पाएं, किंतु उन्होंने यह अवश्य सुनिश्चित कर दिया है कि उनके प्रतिद्वंद्वी केवल उसी तरह जीत हासिल कर सकते हैं जैसे बारिश से बाधित क्रिकेट मैचों में डकवर्थ-लुइस पद्धति के सहारे जीत हासिल की जाती है।

[स्वप्न दासगुप्ता, लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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