केंद्र सरकार ने नेशनल इन्वेस्टमेंट एवं इंफ्रास्ट्रक्चर फंड बनाया है। सरकार द्वारा फंड को 20,000 करोड़ रुपये सीड मनी के रूप में जाएंगे। सरकार को आशा है कि फंड द्वारा इतनी ही रकम निजी निवेशकों से हासिल कर ली जाएगी। इस रकम का उपयोग बुनियादी सुविधाओं जैसे हाईवे, पोर्ट अथवा बिजली की लाइन आदि बिछाने के लिए किया जाएगा। इस निवेश के दो लाभ होंगे। हाईवे बनाने में स्टील, तथा लेबर की मांग बढ़ेगी। बाजार की सुस्ती टूटेगी। साथ-साथ हाईवे बन जाने से ढुलाई का खर्च घटेगा और हमारी प्रतिस्पर्धा शक्ति में सुधार होगा। सरकार का यह संकल्प सराहनीय है। वस्तुस्थिति यह है कि पूर्व में इंफ्रास्ट्रक्चर में किए गए निवेश की स्थिति खस्ता है। देश के बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज में 16 प्रतिशत खटाई में है। इन्हें नान-परफॉर्मिंग एसेट या एनपीए कहा जाता है। सामान्य लोन में एनपीए 16 प्रतिशत है, जबकि इंफ्रास्ट्रक्चर में 30 प्रतिशत। इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों की हालत बदतर है। ऐसे में निवेशक इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश से कतराएंगे। बीमार कंपनी में निवेश नहीं किया जाता है।

विचित्र परिस्थिति है। एक तरफ देश इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी को झेल रहा है और दूसरी तरफ इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियां पस्त हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर की मांग को देखते हुए इन कंपनियों को लाभ कमाना था, लेकिन ये घाटे में चल रही हैं। इन परस्पर विरोधी परिस्थितियों के पीछे इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों की धांधलेबाजी है। उत्तराखंड की एक हाइड्रोपावर कंपनी को सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ने 1700 करोड़ रुपये में स्वीकृति दी थी। कंपनी ने अनेक बहानों से इस लागत को बढ़ाकर 5300 करोड़ रुपये कर दिया। मेरा अनुमान है कि फर्जी बिल लगाकर कंपनी के मालिकों ने अपनी रकम निकाल ली। इसे ऐसे समझें कि 5300 करोड़ रुपये की कुल लागत में 1000 करोड़ रुपये का निवेश मालिकों ने किया। उन्होंने बैंकों से 4300 करोड़ रुपये कर्ज लिए। मालिकों ने 5300 करोड़ रुपये में से 2000 करोड़ रुपये फर्जी बिल लगाकर निकाल लिए। 1000 करोड़ रुपये लगाए और प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले ही 2000 करोड़ रुपये निकाल लिए, लेकिन कर्ज 5300 करोड़ रुपये का चढ़ गया। निवेश की कमी से प्रोजेक्ट की कमाई कम हुई और इस भारी कर्ज का पेमेंट करना संभव नहीं हुआ। कर्ज एनपीए हो गया। यह कर्ज सरकारी बैंक द्वारा दिया गया। बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से यह धांधलेबाजी हुई। यही कारण है कि इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में एनपीए ज्यादा है। इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने निजी उद्यमियों का सहारा लिया था। इंफ्रास्ट्रक्चर को जल्द से जल्द बढ़ावा देने की मंशा से इन कंपनियों द्वारा की जा रही धांधलेबाजी पर रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी, इनकम टैक्स विभाग, बिजली नियामक आयोग एवं सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी जैसे नियंत्रकों ने आंखें मूंद लीं। सोचा कि सख्ती करेंगे तो कंपनियां भाग जाएंगी और इंफ्रास्ट्रक्चर खटाई में पड़ जाएगा, लेकिन की गई गलती का परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है। आंखें मूंदने का परिणाम हुआ कि ये कर्ज एनपीए हो गए और आज इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने को निवेशक तैयार नहीं हैं।

इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देने के लिए सरकार को कंपनियों की इस धांधलेबाजी पर सख्ती करनी होगी। सरकार को चाहिए कि इन कंपनियों की स्वतंत्र संस्था से ऑडिट कराए। पता लगाए कि कितनी रकम को नंबर दो में निकाला गया है। उतनी रकम मालिकों से वसूल करे। तब इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों पर कर्ज का भार कम हो जाएगा। वे कर्ज भर सकेंगी, एनपीए घट जाएंगे और इस क्षेत्र में नया निवेश आने लगेगा।

विषय का दूसरा पक्ष निवेश के लिए पूंजी उपलब्ध कराने का है। वर्तमान में केंद्र सरकार अपने राजस्व को अधिकाधिक खपत में लगा रही है। जैसे सातवें वेतन आयोग के चलते सरकारी कर्मियों के वेतन पर एक लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च होने का अनुमान है। एक ओर सरकार हर वर्ष एक लाख करोड़ रुपये की खपत को बढ़ावा दे रही है और दूसरी ओर एक बार किए गए 20,000 करोड़ रुपये के निवेश को विशाल बता रही है। ये बातें निवेशकों से छुपी नहीं हैं। निवेशक देख रहे हैं कि सरकार के खर्च बढ़ रहे हैं। सरकार द्वारा स्वयं इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश नहीं किया जा रहा है। आने वाले समय में सरकार का बजट दबाव में आएगा। सरकार को और टैक्स लगाने होंगे। इससे बढ़ती खपत, बढ़ते टैक्स और कमजोर होती अर्थव्यवस्था का दुष्चक्र स्थापित होने को है। ऐसे में निवेशक अपनी पूंजी भारत में लगाने को तैयार नहीं हैं।

भ्रष्टाचार की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी की मानें तो संप्रग सरकार में मंत्री कमा रहे थे, जबकि राजग सरकार में अधिकारी कमा रहे हैं। सरकार के खर्चों की अंतिम गुणवत्ता पूर्ववत घटिया है। इसी से विदेशी निवेशकों को भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा नहीं बढ़ रहा है। यही कारण है कि विदेशी निवेशक भारत में बिकवाली कर रहे हैं और रुपया टूट रहा है। सही है कि विश्व अर्थव्यवस्था में गहराती मंदी को देखते हुए कुछ बिकवाली अनिवार्य थी, लेकिन इस बिकवाली को वे जर्मनी अथवा अमेरिका में भी कर सकते थे। उन्होंने भारत में बिकवाली की, क्योंकि उन्हें सरकार की बढ़ती खपत के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा नहीं रह गया है।

निवेशक पुन: निवेश करने को आगे आएं, इसके लिए आगामी बजट में सरकार द्वारा निम्न कदम उठाए जा सकते हैं। सातवें वेतन आयोग के कारण बढ़े वेतन को नगद देने के स्थान पर नेशनल इन्वेस्टमेंट एवं इंफ्रास्ट्रक्चर फंड, बुलेट ट्रेन अथवा अन्य सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों के शेयर के रूप में दिया जा सकता है जिसमें 10 वर्ष का लॉक इन पीरियड हो। ऐसा करने से एक लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष का इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश तत्काल उपलब्ध हो जाएगा। दूसरा उपाय सरकारी खर्चों के प्रभाव आकलन को अनिवार्य बनाने का है। वर्तमान में सरकारी विभागों के ऑडिट में देखा जाता है कि टेंडर प्रक्रिया सही थी, पेमेंट सक्षम अधिकारी के हस्ताक्षर से और ठेके के अनुरूप हुआ है। यह नहीं देखा जाता है कि खर्च का अंतिम प्रभाव क्या पड़ा? जैसे बिजली विभाग ने नई लाइन बिछाई। खर्च की पूरी प्रक्रिया नियमों के अनुसार की गई। ऑडिट में हरी झंडी मिल गई, लेकिन लाइन बिछाने के बाद उसमें बिजली की सप्लाई नहीं की गई। क्योंकि सबस्टेशन की क्षमता नहीं थी। ऐसे में निवेश व्यर्थ गया। अत: सरकार को चाहिए कि सरकारी खर्चों के प्रभाव का अलग ऑडिट कराए। ऐसा करने से सरकारी खर्च की गुणवत्ता में सुधार होगा। अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और निवेश स्वयं आएगा। इन्वेस्टमेंट एवं इंफ्रास्ट्रक्चर फंड की स्थापना सही दिशा में है, लेकिन सफलता तब ही हासिल होगी जब इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों की धांधलेबाजी बंद होगी तथा सफल कार्यों में सरकार के खर्च बढ़ेंगे।

[लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलूर में प्रोफेसर रह चुके हैं]